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भाषण: अखिल भारतीय गोरक्षा सभा, बम्बईमें।

मैंने अपने बेलगाँवके भाषणमें [१] गो-रक्षाका पूरा अर्थ बताया था। गायकी रक्षाका अर्थ केवल गाय नामके पशुकी रक्षा नहीं, बल्कि जीव-मात्रकी--प्राणि-मात्रकी रक्षा है। प्राणि-मात्रमें मनुष्य तो आ ही जाते हैं। अतः गायकी रक्षाके लिए मुसलमानों या अंग्रेजोंको मारना भी अधर्म है। मैं जिस जगह खड़ा होकर यह कह रहा हूँ उसका मुझे खयाल है, परन्तु फिर भी मैं कहता हूँ कि मैं सनातन धर्मका पालन करनेका दावा करता हूँ और वह धर्म मुझे सिखाता है कि मैं गायकी रक्षाके लिए अंग्रेज या मुसलमानकी हत्या नहीं कर सकता। अतः गोरक्षाका अर्थ है प्राणि-मात्रकी रक्षा। परन्तु प्राणि-मात्रकी रक्षा करना पामर मनुष्यकी शक्तिके बाहरकी बात है। इसीलिए इस संविधानमें केवल गायकी रक्षा करना ही उद्देश्य रखा गया है। यदि हम इतना भी करेंगे तो बहुत होगा। और इतना काम कर लेंगे तो अन्य बहुतसे काम भी कर सकेंगे। 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे' यह उक्ति व्यवहारमें अक्षरश: सत्य है। एक अंग्रेज ऋषिने कहा है--मैं मानता हूँ कि अंग्रेजोंमें भी ऋषि हुए हैं--कि मनुष्य अपने आपको पहचान ले तो बहुत है। इसलिए यदि हम सब विवेक, विचार, बुद्धि और मनसे अपना-अपना काम करेंगे तो हमारी सफलता निश्चित है। गायकी रक्षाका अर्थ यह नहीं है कि हम उन्हें कसाइयोंसे छीन लें; बल्कि हम खुद ही उनका जो संहार कर रहे हैं, उसे बन्द कर दें। गोरक्षाकी समस्त कल्पना इतनी ही है कि हिन्दू स्वयं सोचें कि उनका अपने प्रति और गायके प्रति क्या कर्त्तव्य है।

यदि हमने गोरक्षाका अर्थशास्त्र समझा होता तो हम आज जितनी गोहत्या होने देते हैं, उतनी न होने देते। इस देशमें फी आदमी गायोंका औसत जितना कम है, उतना दूसरे किसी देशमें नहीं। हिन्दुस्तानकी गायें जितना कम दूध देती हैं, उतना कम दूध किसी दूसरे देशकी गायें नहीं देतीं। हमारे यहाँ गायें जितनी दुबली-पतली मिलती हैं, उतनी अन्यत्र कहीं नहीं हैं। इन बातोंमें जरा भी अत्युक्ति नहीं; यह वस्तुस्थिति है। मैं आपको जोश दिलानेके लिए यह बात नहीं कह रहा हूँ। मुझे निश्चय है, कि हिन्दुस्तानमें हिन्दू गायोंपर जितना अत्याचार करते हैं, उनपर उतना अत्याचार अन्यत्र कहीं नहीं किया जाता। इसलिए उसकी रक्षा करनेकी जिम्मेवारी भी हिन्दुओंकी ही होनी चाहिए। मैं खिलाफतकी तहरीकमें शरीक हुआ था, सो मुसलमानोंकी सेवा करने के लिए--उनका पद-चुम्बन करनेके लिए---क्योंकि मुझे उनसे गायोंकी सच्ची रक्षा मनसे करानी है। हमारे शहरोंमें गायोंको दुहने में ऐसी क्रिया अपनाई जाती है जिससे उनके थनोंमें एक बूँद भी दूध नहीं बचता। इसका फल यह होता है कि गायें तीन सालमें ही दूध देना बन्द कर देती हैं और तब वे कसाइयोंको बेच दी जाती हैं। चौंडे महाराज-जैसे कुछ गो-सेवक ऐसी गायोंको बचाते हैं, परन्तु यह तो समुद्रको अंजलियोंसे उलीचने में सन्तोष मानने के बराबर है।

मैं इस संविधानको समझानेके लिए आपके सामने दो बातें रखना चाहता हूँ। पहली तो यह है कि हमें दूध-व्यवसाय और चमड़ेके उद्योगपर पूरा-पूरा नियन्त्रण प्राप्त करना चाहिए। यह बात आपको बहुत व्यावहारिक मालूम होगी। परन्तु वह

 
  1. १.देखिए खण्ड २५, पृष्ठ ५४९-५५५।