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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बात, जिसमें व्यावहारिकता नहीं है, धर्म नहीं है। हमें राजा जनकके जीवनसे यही शिक्षा मिलती है कि जिस धर्मको हम व्यवहारका रूप न दे सकें वह धर्म नहीं, अधर्म ही हो सकता है। इसलिए मैं यह धार्मिक प्रश्न आपके सामने व्यावहारिक रूपमें प्रस्तुत कर रहा हूँ। हमें दूध निकालनेकी क्रिया अपने हाथमें लेनी होगी। इसलिए कानून बनानेकी आवश्यकता नहीं। हमारे लिए इतना ही काफी है कि हम शुद्धसे-शुद्ध घी और दूध देनेका निश्चय करें। पर हमें मरे हुए पशुओंका क्या उपयोग करना चाहिए? हमें उनकी खाल उतारकर उसका उपयोग करना चाहिए। आप कहेंगे कि यह आदमी तो विलायत होकर आया है, इसलिए ऐसी बातें करता है; परन्तु आपका यह तर्क ठीक नहीं है। मेरे इस सुझावसे हमारे चमारोंकी भी रक्षा होती है। हमारे चमार क्या करते हैं? वे मरे हुए ढोरोंकी खाल इस तरह निकालते हैं कि हम देख नहीं सकते। मुझे यह बात चमारोंने ही बताई है। और अपनी सफ़ाईमें कहा है, जब हमारी जिन्दगी इस तरह खाल उतारने में जाती है तब हम स्वभावतः मुर्दार मांस भी खाते हैं। मैंने उनसे मुर्दार मांस न खानेका आग्रह किया। किन्तु किसीने कहा, 'आदत पड़ गई है, कैसे छूट सकती है? किसीने कहा, 'हमारा पेशा छुड़वा दें तो यह छूट जायेगी। उनमें से कुछने कहा, 'हम इसे छोड़नेकी कोशिश तो करेंगे, परन्तु है मुश्किल'। यह सब देख कर मैं समझता हूँ कि हमें इस व्यवसायको अपने हाथमें लेना पड़ेगा। मैं तो गायका इस हदतक पूजक हूँ कि मैंने जब दक्षिण आफ्रिकामें सुना कि गायोंको दुहनमें बहुत जबर्दस्ती की जाती है तभीसे गायों और भैसोंका दूध पीना छोड़ दिया। परन्तु मैं यह भी मानता हूँ कि मरे हुए जानवरोंके चमड़ेका उपयोग जूते आदि बनानेके लिए करना अधर्म नहीं है। आज हमारे देशमें तो जीवित गायोंका चमड़ा, चर्बी और मांस लेनेवाले मौजूद हैं। यहाँ ऐसे-ऐसे वैष्णव हैं जो 'बीफ टी' (उबले गोमांसका रस) पीते हैं। मैं जब उनसे पूछता हूँ कि आप 'ली बेग' का 'गोमांस सत्त्व' क्यों खाते हैं, तब वे मुझे यह उत्तर देते हैं कि विश्वामित्रने भी तो गोमांस खाया था। जब मैं बताता हूँ कि विश्वामित्रने तो धर्मसंकट समझकर गोमांस सिर्फ हाथमें लिया था, खाया नहीं था, तब वे डाक्टरी सलाहकी बात कहते हैं। हम अपनी गायें आस्ट्रेलियामें भेजकर वहाँसे आनेवाली इन चीजोंको खाने लगे हैं। यदि हमें इससे बचना हो तो हमें चमड़ा इकट्ठा करके उसे अच्छी तरह कमाना सीखना पड़ेगा। हम यहाँसे गोमांसतक बाहर भेजते हैं। हम गोमांस सुखाकर बर्मा भेजते हैं, क्योंकि बर्मी लोग गोवध नहीं करते, हाँ, गाय खाते अलबत्ता हैं। इसलिए मुझे चर्मालयकी बात संविधानमें रखनी पड़ी है। हम जबतक अपने चमारोंको चमड़ा कमानेकी शास्त्रीय पद्धति न सिखायेंगे तबतक वे मुर्दार मांस बराबर खाते रहेंगे।

इसके अलावा जो बातें निर्विवाद हैं, मैं उनकी चर्चा यहाँ नहीं करता। हमारा तात्कालिक काम है अच्छी दुग्धशालाएँ खोलना। यदि मुझे इसमें वैष्णव महाराजाओं और रामानुजाचार्य आदिकी मदद मिलेगी तो मुसलमानोंकी मदद तो मेरी जेबमें ही है। (तालियाँ) इसमें ताली बजानेकी कोई बात नहीं, क्योंकि आज तो आपकी मदद मेरी जेबमें नहीं है।