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३१९. पी० एन० पी० (त्रिवेन्द्रम्) को

आप बिलकुल गलतीपर है। मैंने ईसाइयोंके मद्यपानके बारेमें जो-कुछ लिखा है [१] वह स्वयं ईसाइयों द्वारा दी गई सूचनापर आधारित है और उन्हींके अनुरोध करनेपर लिखा गया है। यदि वह सूचना सही न हो तो मुझे इससे प्रसन्नता होगी। आपकी भूलका और आपके दुःखका कारण यह है कि आप अपनेको दूसरे भारतीयोंसे अलग रख रहे हैं। आप मेरी तरह यह क्यों नहीं सोचते कि यदि कोई ईसाई भारतीय या मुसलमान भारतीय अथवा हिन्दू भारतीय शराब पीता है या अन्य प्रकारसे गिरता है, तो यह आपके लिए उतनी ही शर्मकी बात है जितनी मेरे लिए। हम सभी एक ही समाजके अंग हैं। और यदि उसका कोई अंग क्षतिग्रस्त होता है तो मानो सारा समाज क्षतिग्रस्त होता है।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया ३०-४-१९२५

३२०. 'क्रान्तिकारी बननेके आकांक्षी' से

माफ करें, मैं आपका पत्र प्रकाशित नहीं कर सका। यदि वह इस योग्य होता तो मैं उसे जरूर दे देता। यह बात नहीं कि आपका पत्र कुरुचिपूर्ण है या हिंसाभावसे युक्त है। बल्कि इसके विपरीत आपने अपना पक्ष समुचित रूपमें और शान्त भावसे प्रस्तुत करनेका प्रयत्न किया है; परन्तु आपने अपनी दलीलें जिस ढंगसे पेश की हैं उससे वे लचर मालूम होती हैं और कायल नहीं कर पातीं। आपके कहनेका आशय यह है कि क्रान्तिकारी कभी हिंसा नहीं करता, क्योंकि वह जब अपने शत्रुके प्राण लेता है तब उसका उद्देश्य उसे या उसकी आत्माको लाभ पहुँचाना होता है--ऐसे ही जैसे एक सर्जन रोगीके भलेके लिए उसके शरीरमें तकलीफदेह नश्तर लगाता है। आपका कहना है कि शत्रुका शरीर घृणित होता है। वह उसकी आत्माको दूषित करता है, इसलिए वह जितनी जल्दी नष्ट कर दिया जाये उसके लिए उतना ही अच्छा है।

पर आपकी यह सर्जनकी उपमा फबती नहीं, क्योंकि सर्जनका सम्बन्ध तो सिर्फ शरीरसे होता है। वह शरीरके लाभके लिए शरीरमें नश्तर लगाता है। उसके विज्ञानमें आत्माके लिए जगह नहीं है। कौन कह सकता है कि सर्जनोंने आत्माको हानि पहुँचाकर कितने शरीरोंकी रक्षा की है? परन्तु क्रान्तिकारी तो शत्रुके शरीरका नाश इसलिए करता है कि वह मानता है कि ऐसा करनेसे उसकी आत्माको लाभ पहुँचेगा।

 
  1. देखिए "त्रावणकोरके बारेमें", २३-३-१९२५ के अन्तर्गत उपशीर्षक "मद्यपानका अभिशाप"