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'क्रान्तिकारी बननेके आकांक्षी' से

अव्वल तो मैं ऐसे एक भी क्रान्तिकारीको नहीं जानता जिसने अपने शत्रुकी आत्माका कभी विचार किया हो। क्रान्तिकारीका एकमात्र उद्देश्य यही रहा है कि उसके देशको लाभ पहुँचे, चाहे शत्रुके शरीर और आत्मा दोनों नष्ट हो जायें। दूसरे, आप कर्मसिद्धान्तके कायल हैं। इसलिए जबरदस्ती प्राण ले लेनेसे उसका उसी किस्मका, उससे भी सबल दूसरा शरीर बननेका रास्ता तैयार होता है, क्योंकि जिस आदमीका शरीर इस तरह नष्ट किया जाता है वह अपनी लालसाके अनुसार ही शरीर ग्रहण करेगा। हमारे चारों ओर जो पापकृत्य और अपराध निरन्तर हो रहे हैं, मेरी समझमें उसका कारण यही है। हम जितना ही अधिक दण्ड देते हैं, वे उतने ही अधिक बढ़ते हैं। उनका रूप-रंग भले ही बदल जाये, पर भीतरी वस्तु वही होती है। शत्रुकी आत्माका हित साधन करनेका उपाय है, उसकी आत्माको जाग्रत करना। उसका नाश तो होता ही नहीं; परन्तु उसको जाग्रत करनेके योग्य उपायोंका उसपर असर होता है। आत्माकी आत्मापर प्रतिक्रिया अवश्य होती है। और चूँकि अहिंसा मुख्यत: आत्माका ही एक गुण है, इसलिए आत्माको जाग्रत करनेका प्रभावकारी साधन केवल अहिंसा ही है। और अपने शत्रुओंको दण्ड देनेकी चेष्टा करनेका अर्थ क्या अपनेको भूल-चूकसे नितान्त परे मानना नहीं है। हमें यह बात याद रखनी चाहिए कि हम उन्हें समाजके लिए जितना हानिकर मानते हैं वे भी हमें समाजके लिए उतना ही हानिकर समझते हैं। श्रीकृष्णके नामको बीचमें घसीटना फिजूल है। यदि हम उन्हें मानते हों तो उन्हें साक्षात् ईश्वर मानें अथवा फिर बिलकुल न मानें। यदि मानते हैं तो फिर हम उनमें सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमत्ता होना मानते हैं। ऐसी शक्ति अवश्य संहार कर सकती है। पर हम तो ठहरे पामर मर्त्य। हम हमेशा भूलें करते रहते हैं और अपने विचार और रायें बदलते रहते हैं। यदि हम 'गीता'के गायक कृष्णकी नकल करेंगे तो हम घोर विपत्तिमें पड़ेंगे। आपको यह भी याद रखना चाहिए कि मध्ययुगके कथित ईसाई भी वैसा ही सोचते थे, जैसा आप क्रान्तिकारी लोगोंके बारेमें कहते हैं। नास्तिकोंको वे उनकी आत्माके कल्याणार्थ जला देते थे। आज हम उन अज्ञानी कथित ईसाइयोंकी मूर्खताओं और अत्याचारोंपर हँसते हैं। अब हम जानते हैं कि वे अपराधी नितान्त निर्दोष थे और उनके धार्मिक न्यायकर्त्ता गलतीपर थे।

खुशीकी बात है कि आप चरखा चला रहे हैं। उसकी मौन गतिसे आपके चित्तको शान्ति मिलेगी और स्वाधीनता, जो आपको इतनी प्रिय है, आपके अन्दाजसे भी ज्यादा नजदीक आ जायेगी। आप उन अस्थिर-चित्त मित्रोंका कुछ खयाल न करें जो आपको खराब पूनियाँ दे गये हैं। यदि आपकी जगह मैं होता तो मैं उन पूनियोंकी रुईको फिर धुन लेता। आप शायद धुनना नहीं जानते। यदि न जानते हों, तो आप नजदीकके किसी धुनना जाननेवालेके पास जायें और उससे धुनाईकी यह सुन्दर कला सीख लें। जो धुनना नहीं जानता वह अच्छा कतैया नहीं है। आप इस बातसे न घबराएँ कि अहिंसाकी रीति बहुत धीमी और देरसे सफल होनेवाली क्रिया है। यह तो इतनी तेज, वेगवती है जितनी दुनियाने आजतक दूसरी न देखी होगी; क्योंकि वह अचूक है। आप देखेंगे कि हम इससे उन क्रान्तिकारियोंसे आगे निकल जायेंगे जिन्हें कि आपका खयाल है समझनेमें मैंने पूरी तरह भूल की है।