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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

किसीकी गलती बताना उसे समझनेमें भूल करना नहीं है। मैं क्रान्तिकारियोंके लिए इतनी जगह इसी हेतुसे दे रहा हूँ कि मैं उनकी अथक-कार्य शक्तिको सही रास्तेपर लगाना चाहता हूँ।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ३०-४-१९२५

३२१. पुनः अन्तर्जातीय भोज

एक पत्र-लेखक लिखते हैं:

आपने एक अंग्रेजकी अन्तर्जातीय विवाह सम्बन्धी मामलेकी 'पहेली' का विस्तारसे उत्तर दिया है। [१] किन्तु अन्तर्जातीय भोजके बारेमें आप क्या कहते है? यद्यपि यह प्रश्न अपेक्षाकृत बहुत कम महत्वपूर्ण है, फिर भी वह जीवनमें प्रायः बार-बार आता है। मान लो कि कुछ सद्भावी लोग सभी वर्गोमें सवभाव स्थापित करने के लिए ऐसे अन्तर्जातीय अन्तर्समाजीय और अन्तर्राष्ट्रीय भोजका आयोजन करते हैं जिसमें मांस और मदिराका व्यवहार न हो। यदि कुछ हिन्दू उदाहरणार्थ आपको जातिके या अपने परिवारके कुछ लोग निमन्त्रित किये जानेपर (जबरदस्ती नहीं) उस भोजमें शामिल होना चाहते हैं और आपकी राय लेते हैं तो क्या आप अपने सनातन धर्मके दृष्टिकोणसे उसपर आपत्ति उठायेंगे? इसी प्रकार यदि कोई ब्राह्मण, जो आपकी तरह सनातन धर्म या मर्यादा धर्ममें विश्वास रखता हो, किसी निर्जन वन-वीहड़में थका-माँदा, भूखा और प्यासा पड़ा है और बेहोश हो जाने के करीब है, उसे कोई चाण्डाल, मुसलमान या ईसाई थालीमें स्वच्छ भात और गिलासमें शुद्ध जल देता है (और निश्चय ही उन्हें लेने के लिए उससे जबरदस्ती नहीं करता) तो क्या वह ब्राह्मण उसे स्वीकार कर सकता है? संक्षेपमें प्रश्न इस प्रकार है: क्या "सर्वजातीय" सहभोज अथवा एक कथित अछूत द्वारा स्पृश्य-हिन्दूको भोजन और जलके दिये जानेपर उसकी स्वीकृति--दोनों आपके सनातन धर्म, वर्णाश्रम-धर्म या मर्यादा-धर्मसे मेल खाती है या नहीं?

यदि कोई ब्राह्मण संकटमें है और अपनी प्राण-रक्षा करना चाहता है तो वह शुद्ध भोजन, चाहे उसे कोई भी दे, स्वीकार कर लेगा। मैं अन्तर्राष्ट्रीय या सार्वजनीन सहभोजमें हिस्सा लेनेपर न तो ऐतराज करूँगा और न उसकी हिमायत ही करूँगा। इसका सीधा-सादा कारण यह है कि इस प्रकारके आयोजनोंसे न तो मैत्रीभाव बढ़ता है और न सद्भाव। आज हिन्दुओं और मुसलमानोंके बीच इस प्रकारके भोजका

 
  1. देखिए "टिप्पणियाँ", १२-३-१९२५ के अन्तर्गत उपशीर्षक "मैं राजनीतिज्ञ?"।