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पुनः अर्न्तजातीय भोज

आयोजन करना सम्भव है, किन्तु मैं यह निश्चयपूर्वक कहता हूँ कि जिस प्रकार सहभोजका अभाव दोनों जातियोंकी पृथकताका कारण नहीं है इसी प्रकार उसका आयोजन दोनोंको समीप नहीं ला सकता। मैं ऐसे व्यक्तियोंको जानता हूँ जो घोर शत्रु होनेपर भी साथ-साथ बैठकर भोजन करते हैं और दिल खोलकर बातें करते हैं, किन्तु फिर भी शत्रु बने हुए हैं। पत्र-लेखक दोनोंके बीचकी विभाजक रेखा कहाँ खींचेगा? वे मांस और मद्यरहित भोजनकी बात कहकर ही क्यों रुक जाते हैं? जो आदमी यह मानता है कि मांस खाना एक सद्गुण है और शराबकी चुस्की हानिरहित एवं सुखदायक ताजगी देनेवाली चीज है, वह तो यही समझेगा कि दुनियाके साथ गो-मांसको बाँटकर खाने और मद्यपात्रोंके आदन-प्रदानसे सद्भाव ही बढ़ता है। पत्र-लेखकके प्रश्नके पीछे जो तर्क है उसकी मर्यादाकी कोई कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए मैं अन्तर्जातीय सहभोजको सद्भाव वृद्धिका साधन नहीं मानता। जहाँ मैं स्वयं इन प्रतिबन्धोंका पालन नहीं करता और किसी भी मनुष्यका दिया ऐसा भोजन खा लेता हूँ, जिसे मैं निषिद्ध नहीं समझता और जो शुद्धताके साथ तैयार किया गया हो, वहाँ मैं उन लोगोंकी आपत्तिका भी आदर करता हूँ जो प्रतिबन्धोंका पालन करते हैं। मैं दूसरे लोगोंकी 'संकीर्णता' से तुलना करके अपने 'उदार' आचरणकी श्लाघा भी नहीं करता। ऊपरसे उदार दिखनेवाले अपने आचरणके बावजूद मैं संकीर्ण और स्वार्थी हो सकता हूँ और मेरा मित्र ऊपरसे संकीर्ण दिखनेवाले अपने आचरणके बावजूद उदार और निःस्वार्थ हो सकता है। गुण या अवगुण तो हेतुपर निर्भर है। मेरे खयालमें अन्तर्जातीय भोजको भाई-चारा बढ़ानेके कार्यक्रमका एक अंग मानने और उसपर जोर देनेसे भ्रांत प्रश्न उठेंगे और झूठी आशा भी उत्पन्न होगी और उसके फलस्वरूप सद्भावका प्रसार रुकेगा। मैं लोगोंके हृदयोंमें से दो बातें निकालनेका प्रयत्न कर रहा हूँ; एक यह कि किसीके स्पर्शसे कोई भ्रष्ट हो सकता है और दूसरा यह कि एक मनुष्य दूसरेसे ऊँचा है। स्वयं लगाये गये प्रतिबन्धोंका स्वच्छता तथा आध्यात्मिकताकी दृष्टिसे अपना मूल्य है। किन्तु इनका पालन न करनेसे आदमी न तो नरकमें चला जाता है और न इनका पालन करनेसे स्वर्गमें पहुँच जाता है। जो मनुष्य अत्यन्त सावधानी और निष्ठासे इन प्रतिबन्धोंका पालन करता है, सम्भव है, वह निपट धूर्त और समाजकी घृणाके योग्य हो और एक मानवधर्मी सर्वभक्षी मनुष्य ऐसा हो जिसे सदा ईश्वरका भय रहता हो और जिसकी संगतिमें रहना सौभाग्य माना जाये।।श।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ३०-४-१९२५