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३२२. क्या ईश्वर है?

सेवामें,
सम्पादक
'यंग इंडिया'
महोदय,

आपके 'कांग्रेस और ईश्वर' शीर्षक लेखके संदर्भमें कहना चाहता हूँ कि जहाँ चार्वाकका मत सर्वथा भौतिकवादी है वहाँ ईश्वरके या किसी अन्य अलौकिक सत्ताके (जो ईश्वरके समकक्ष मानी जा सके) बारेमें बौद्ध धर्म मौन है और जैन धर्म उसके अस्तित्वमें ही सन्देह करता है, यद्यपि ये दोनों ही धर्म हिन्दू धर्मके समान ही पुनर्जन्म और कर्मके सिद्धान्तको मानते हैं। (आप इस सम्बन्धमें अपने मित्र प्रो० धर्मानन्द कोसाम्बीसे, जिनका मैंने आपसे जिक्र किया था विचार-विमर्श कर सकते हैं।) यह कहा जा सकता है कि धार्मिक अनुष्ठानोंमें बौद्ध धर्ममें कर्मके साथ बुद्धको और जैन धर्म कर्मके साथ जिनको ईश्वरके स्थानपर आसीन किया गया है।

आधुनिक धार्मिक मामलों में पंजाबका देव समाज मानववादी और समाजसेवी एक संस्था है और उसमें अहिंसापर बहुत जोर दिया गया है। मेरा विश्वास है कि वह धर्मकी दृष्टिसे निश्चित रूपसे एक नास्तिक सम्प्रदाय है; किन्तु वह भौतिकवादी नहीं है। मैंने पढ़ा है कि वह न तो ईश्वरमें विश्वास करता है और न देवी-देवताओंमें। इस खयालसे उसका देव समाज नाम निरोधात्मक लगता है। वह तो 'वदतो व्याघात' का उदाहरण है।

ब्रैडलाके बारेमें आपका कथन है कि उन्होंने उस ईश्वरका अस्तित्व स्वीकार करनेसे इनकार किया था जिसका चित्र उसके मनमें, विविध विवरणोंसे बना था। आपका कहना यह भी है कि यदि हम ईश्वरकी अपनी-अपनी परिभाषाएँ कर सकें तो हमारी परिभाषाएँ भिन्न-भिन्न होंगी। किन्तु उस भिन्नतामें 'एक तरहकी निभ्रन्ति एकरूपता' होगी। ब्रैडला जिस ईश्वरको माननेसे इनकार करते थे उसमें यह एकरूपता आती है या नहीं? उसमें वह न आती हो यह बात तो हो ही नहीं सकती, क्योंकि ब्रैडला बहुत विद्वान् और मनीषी मनुष्य थे। किन्तु यदि आती हो तो ब्रैडलाने उस 'निभ्रान्त एकरूपता' के सम्बन्धमें भी ईश्वरके अस्तित्वसे क्यों इनकार किया?

मुझे सन्देह नहीं कि इस सन्दर्भमें निम्न उद्धरण आपको कुछ रोचक प्रतीत होगा: