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क्या ईश्वर है?

"बौद्ध धर्मकी विचारधारामें जो संसारको रुचता हो या उसपर किसी तरहका नियन्त्रण रखता हो ऐसे ईश्वरकी कल्पनाका ही सर्वथा अभाव है। उसमें ईश्वरके अस्तित्वसे इनकार करना तो दूर, उसका कतई जिक्रतक नहीं मिलता। एक समय था जब यह विश्वास सर्व सामान्य था कि किसी भी समूचे राष्ट्र के लोग कभी नास्तिक नहीं रहे। किन्तु अब इसके विपरीत इस बातसे कोई इनकार नहीं करता कि बौद्ध राष्ट्रोंके लोग मुख्यतः नास्तिक है, क्योंकि वे किसी भी ऐसी दिव्य शक्ति-सम्पन्न सत्तासे अपरिचित हैं जिसे मानवप्राणी धर्माचरण, तप और उच्च ज्ञानसे प्राप्त न कर सके। इस चौंकानेवाले तथ्यका एक अच्छा प्रमाण इस बातसे मिलता है कि कमसे-कम कुछ बौद्ध राष्ट्रोंकी, जैसे चीनियों, मंगोलों और तिब्बतियोंकी, भाषाओंमें ईश्वरकी कल्पनाका बोधक कोई शब्द ही नहीं है। इसके अतिरिक्त बौद्धोंकी भावी दशा--जन्मान्तर या मोक्ष--का निर्धारण संसारका नियन्ता नहीं करता। उसका निर्धारण तो उनके कर्मोसे होता है जो अपनी सहज शक्तिसे अर्थात् कार्यकारण सम्बन्धको अन्धी और निर्ज्ञान परम्पराके अनुसार (फल प्राप्त करानमें) प्रवृत्त होते हैं।"

---चैम्बर्सके विश्व कोषसे

अब मैं भर्तृहरिके 'नीति शतक'का निम्न श्लोक देकर यह पत्र समाप्त करता हूँ:

नमस्यामो देवान् ननु हतविधस्तेऽपि वशगा:
विधिर्वन्द्यः सोऽपि प्रतिनियतकर्मकफलदः।
फलं कर्मायत्तं किममरगणै: किं च विधिना
नमस्तत्कर्मभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवति।

हम देवताओंको नमस्कार करते हैं; किन्तु खेद, वे भी अवश्य ही भाग्याधीन हैं। तब हमें विधाताको नमस्कार करना चाहिए, किन्तु वह भी नियत कर्मफल देनेवाला है। जब फल कर्माधीन है, तब हमें देवताओंसे क्या और विधातासे भी क्या! अतः हमारा उन कर्मोंको ही नमस्कार है जिनसे विधाता भी नहीं जीत पाता।

करवार
(उ० कन्नड़)
१० मार्च,१९२५

आपका,
एस० डी० नाडकर्णी

श्री नाडकर्णीके इस चातुर्ययुक्त पत्रको स्थान न देना कठिन है। फिर भी मैं अपने इस मतपर कायम हूँ कि न तो बौद्ध धर्म नास्तिक धर्म है और न जैन-धर्म। मैं श्री नाडकर्णीके सामने ईश्वरकी ये परिभाषाएँ रखता हूँ: ईश्वर कर्मका सम्पूर्ण