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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

योग फल है। जो मनुष्यको उचित कर्मकी प्रेरणा देता है, वह ईश्वर है। जो-कुछ भी जीवित है उसका सम्पूर्ण योगफल ईश्वर है। जो मनुष्यको भाग्यकी कठपुतली-मात्र बनाता है, वह ईश्वर है। जिसने ब्रैडलाको सभी विपत्तियोंमें दृढ़ रखा वह ईश्वर है। वह नास्तिकका निषेध है।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ३०-४-१९२५

३२३. सत्यान्वेषी

एक सज्जनने जो अपनेको सत्यान्वेषी कहते हैं, क्रान्तिकारी विचारोंके सम्बन्धमें मेरे विवेचनपर अपने कुछ विचार मुझे भेजे हैं। वे मुझे बताते हैं कि वे पहले असहयोगी थे, परन्तु बादमें उनको लगने लगा कि असहयोग तो मात्र एक सामाजिक आन्दोलन है और क्रान्तिकारी आन्दोलन ही सच्चा राजनीतिक आन्दोलन हो सकता है। इसके बाद उन्होंने बेलगाँव कांग्रेसके अवसरपर इस सम्बन्धमें नये सिरेसे विचार करना शुरू किया। मैं नीचे उनके विचारोंको संक्षिप्त रूपमें प्रस्तुत करता हूँ। मैंने इस संक्षिप्तीकरणमें उनके भावों और उनकी भाषाको ज्योंका-त्यों कायम रखा है:

क्रान्तिकारी निश्चय ही देशभक्त होता है। वह पराक्रमी होता है। वह मातृभूमिकी खातिर अपना जीवन उत्सर्ग करनके लिए तैयार रहता है। परन्तु उसका उद्देश्य ही गलत है।

क्रान्तिकारी चाहता क्या है? देशकी स्वतन्त्रता। यहाँतक तो बात बिलकुल ठीक है। स्वतन्त्रता किसलिए चाहिए? ताकि जनता सुखी हो सके। यह भी ठीक है। जनता सुखी कैसे हो सकती है? शासन-व्यवस्थाको बदलकर।

अब यहाँ असल सवाल उठता है।

हम जरा अपनी स्थितिपर गौर करें। माना कि हम भारतीयोंमें बहुत सारे सद्गुण हैं; लेकिन हममें अवगुण भी तो हैं? हम बुजदिल बन गये हैं। हममें कई बुराइयोंने घर कर लिया है। हम हिन्दुओंमें अछूत भी है। हम जमीन जोतते हैं और गल्ला, सब्जियाँ और ऐसी ही दूसरी चीजें पैदा करते हैं, जिनसे हम सबका आसानीसे गुजारा हो सकता है। फिर भी तथ्य यह है कि हमारी जनसंख्याका अधिकांश अधपेट खाकर रहता है। हम कारखानोंमें कपड़ा बुनते हैं और काम करते हैं। फिर भी हम अध-नंगे बने रहते हैं। हमारे पास मिट्टीकी कमी नहीं। हम ईंटे पकाना और सुन्दर मकान बनाना भी जानते हैं; फिर भी हममें से अनेक लोग ऐसे हैं जिनको पेड़ोंके नीचे ही बसर करनी पड़ती है।

निस्सन्देह, हमारी इन परेशानियोंके लिए विदेशी लोग एक बड़ी हद तक जिम्मेदार हैं। हम ईमानदारीसे यही मानते हैं; भले ही हमारी यह