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सत्यान्वेषी

मान्यता गलत हो। लेकिन इसमें हमारी अपनी जिम्मेदारी कितनी है? क्या इसमें हमारा अपना कोई दोष नहीं है?

फिर मान भी लें कि हम तमंचों या ऐसे ही अन्य शस्त्रोंके बलपर विदेशियोंको देशसे बाहर खदेड़ देते हैं। तब क्या यह मुमकिन नहीं है कि इन विदेशियोंकी जगह कोई अन्य विदेशी आ कर बैठ जाये, क्योंकि युद्ध तो आखिर एक तरहका जुआ ही होता है?

मैं अहिंसा, सैनिक शक्ति और ऐसी ही अन्य चीजोंकी उपयोगिता या अनुपयोगिताके बारेमें यहाँ कुछ नहीं कहना चाहता। मैं अपने-आपको इस विषयकी चर्चा करने के लिए सर्वथा अयोग्य मानता हूँ। इतना ही कहना काफी है कि मैं इस विषयमें गांधीजीके विचारोंको कुछ-कुछ समझने लगा हूँ और मुझे वे सही लगते हैं।

आम तौरपर कहा जाता है कि संयुक्त राज्य अमेरिकाको शासनव्यवस्था ही बहुत अच्छी शासन-व्यवस्था है। लेकिन फिर भी वहाँ इतनी साजिशें, हत्यायें, डकैतियाँ और धोखेबाजी वगैरा क्यों होती रहती हैं? बोल्शेविक प्रणाली अच्छी मानी जाती है। लेकिन तब रूसमें भी उत्तरोत्तर बढ़ती संख्यामें लोगोंको फाँसियाँ क्यों दी जा रही हैं और दंगे वगैरा क्यों होते हैं? ऐसे उदाहरण कितने ही गिनाये जा सकते हैं।

गांधीजीके विचारोंको मात्र-आदर्शवादी और अव्यावहारिक कह कर टाल देना अनुचित है और एक क्रान्तिकारीके लिए तो ऐसा करना और भी अधिक अनुचित है, क्योंकि वह तो हृदयसे जनताका कल्याण ही चाहता है।

ऐसी स्थिति पैदा करना बिलकुल असम्भव नहीं है जिसमें संसारमें सुख ही सुख हो। सबसे अच्छा काम तो बेशक यही है कि दूसरोंका भला किया जाये। लेकिन अभी आपको इस हदतक जानकी जरूरत नहीं, आप अभी स्वयं अपना ही भला करें।

क्या आप अपना काफी समय यों ही बर्बाद नहीं कर देते? क्या आप विदेशी वस्त्र खरीद कर अपने करोड़ों रुपये दूसरे देशोंको नहीं भेज देते? आप सूत कातें और अपने समयका सदुपयोग करें। अपना कपड़ा आप बुनें उसीको इस्तेमाल करें और अपने करोड़ों रुपये बचायें।

मैं कताईका अर्थ केवल सूतकी कताई नहीं समझता। मैं इसे गृह-उद्योगका प्रतीक मानता हूँ। यह गृह-उद्योग भारतकी और उतना ही अन्य देशोंकी भी समस्याका हल है।

अस्पृश्यता निवारण, हिन्दू-मुसलमान-एकता और ऐसी ही अन्य बातोंका सम्बन्ध देशकी भीतरी व्यवस्थासे है। यह तो आत्मशुद्धि है। हरएकको अपनी गन्दगी खुद ही साफ करनी पड़ती है। हिन्दुओंमें अस्पृश्यता है और भारतीयोंमें