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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कामको ढिलाईके कुछ कारण ये हैं:

(क) कताई-सदस्यतामें विश्वास रखनेवाले कार्यकर्त्ताओंमें संगठनका अभाव।

(ख) बड़े-बड़े कांग्रेस नेताओंके मनमें इस मताधिकारके प्रति सहानुभूतिका अभाव और मताधिकारके प्रवर्तकमें तमाम विघ्न-बाधाओंके रहते हुए भी मताधिकारपर अटल रहनकी दृढ़ता की कमी। अपरिवर्तनवादी भी यह मानने लगे हैं कि यह मताधिकार तो आगामी कांग्रेस अधिवेशन में बदल ही दिया जानेवाला है और इससे उनका नियमित और कारगर ढंगसे काम करनेका सारा उत्साह नष्ट हो गया है।

विरोधी प्रचार: कांग्रेस-वक्ता तथा दूसरे अधिकांश सार्वजनिक वक्ता दीगर बातोंपर जोर देते रहते हैं, इस मताधिकारके दोष बताते रहते हैं और उसके पक्षमें कुछ कहनेसे बहुत सावधानीसे बचते रहते हैं। और उनके इस रवैयके खिलाफ कुछ कहा नहीं जा सकता, क्योंकि यह डर है कि कहीं वादविवाद न छिड़ जाये। उससे वायुमण्डल बिगड़ेगा और महात्मा गांधी इस तरहके विवादमें पड़नेका समर्थन करेंगे, इसकी कोई आशा नहीं।

मुझे इसमें एक मुलायम फटकार बताई गई है, कहा गया है कि हर तरहकी विघ्न-बाधाओंके रहते हुए इस मताधिकारको कायम रखनेकी दृढ़ता मुझमें नहीं है। पर मैं इस रिपोर्टके लेखकोंसे कहता हूँ कि जहाँतक मेरा सम्बन्ध है, मैं स्वयं तो इस मताधिकारपर हर हालतमें कायम रहूँगा। पर यदि मेरे अन्दर प्रजासत्ताके भावोंकी एक चिनगारी भी होगी तो मैं अकेला उसे कांग्रेसके लिए कायम नहीं रख सकता। वह काम तो है कांग्रेसके सदस्योंका। उसकी जिम्मेवारी संयुक्त और अलग-अलग होनी चाहिए। पर जो इस मताधिकारके--राष्ट्र के लिए चरखा कातनेके--कायल हैं वे अनमने और उदासीन लोगोंके मुकाबले में और ज्यादा दृढ़ क्यों नहीं रहते? और मान लें कि कांग्रेस अगले साल इस मताधिकारको बदल देगी, तो भी उसमें विश्वास रखनेवाले लोग क्या करेंगे? क्या वे चरखा कातना छोड़ देंगे? या वे खुद अपने लिए तो कातेंगे ही, दूसरोंके लिए भी कातेंगे?

हाँ, रिपोर्टके लेखकोंका यह कहना ठीक है कि मैं उस झगड़े और चर्चाका समर्थन न करूँगा 'जिससे बुरा वातावरण तैयार हो।' पर यदि कोई अनमना या उदासीन है, तो इसका उपाय यह नहीं है कि उसके खिलाफ या उसके सम्बन्धमें कुछ कहा या लिखा जाये, बल्कि यह है कि हम अपने रास्तेपर चलें और जिस बातको हम मानते हैं उसका संगठन करें। जो लोग कताईमें विश्वास रखते हैं उन्हें उसका संगठन करनेसे कौन रोक सकता है? रिपोर्टके लेखकोंको में बताये देता हूँ कि देश में ऐसे मौन रहकर काम करनेवाले पैदा हो गये हैं जो कारगर तौरपर बिना आडम्बरके खादी और चरखेका सन्देश देशमें फैला रहे हैं।

अभी मुझे नागपुरमें दिये गये दो और विवरणोंका जिक्र करना बाकी है। तीसरा विवरण है तिलक विद्यालयकी रिपोर्ट। यह संख्या १९२१में १,००० विद्यार्थियों और