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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कर इस असुविधाको दूर करनेका वचन दिया लेकिन यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया गया। इस प्रकार यह सिद्ध है कि इस प्रतिबन्धको हटानेकी माँगका एकमात्र आधार आत्मसम्मान, अर्थात् एक भावना है। मैं मानता हूँ कि इस भावनाका आदर करना चाहिए; लेकिन तब मैं आपसे यह पूछता हूँ कि अगर ऐसा करनेके लिए किसी सरकारको सुमान्य और सुस्थापित कानूनी स्थितिके खिलाफ जाना पड़े और दूसरे समुदायकी धार्मिक श्रद्धाको चोट पहुँचानी पड़े तो क्या उसके लिए ऐसा कर सकना सम्भव है?

इस प्रस्तावपर बहसके दौरान ऐसा कहा गया है कि जब सरकारने सार्वजनिक संस्थाओं, सरकारी कार्यालयों और सरकारी नौकरियोंमें प्रवेशके सम्बन्धमें इन समुदायोंपर लगे सारे प्रतिबन्ध हटा दिये हैं तब वह उस निषेधको हटानेसे इनकार नहीं कर सकती जो इनके आत्मसम्मानको चोट पहुँचाता है। यह सच है कि ये समुदाय अबतक जिन निषेधों और प्रतिबन्धोंको सहते आये हैं उनमें से कईको दूर करने के लिए सरकारने अपने तई कुछ उठा नहीं रखा है और उसने इन्हें यथासम्भव अन्य समुदायोंके बराबरके अवसर देनेकी पूरी कोशिश की है; लेकिन उन क्षेत्रोंमें प्रवेश करनेकी अनुमति देना, जिन क्षेत्रोंको हिन्दू समाजके कुछ वर्ग पवित्र मानते हैं, बिलकुल अलग ढंगकी चीज है, क्योंकि इससे धार्मिक विश्वासपर आधारित प्रतिष्ठित पुराने अधिकार भंग होंगे।

यह बड़े दुःखकी बात है कि एजवाहा और त्रावणकोरके अन्य अवर्ण हिन्दुओंने ऐसे तरीके अपनाये जिससे बहुत-से लोग उनके खिलाफ हो गये हैं। अगर सरकार उनकी माँगोंको सवर्ण हिन्दुओंसे जबर्दस्ती मनवानेकी नीतिपर चले तो वह नीति न टिकाऊ होगी और न उसके परिणाम ही दूरगामी होंगे। शक्ति-प्रयोगके बलपर किया गया कोई भी निबटारा टिकाऊ नहीं हो सकता। अगर एजवाहा लोगोंने अपनी शक्तिका उपयोग सवर्ण हिन्दुओंको शान्तिपूर्वक समझा-बुझाकर और सही बात बताकर उन्हें यह महसूस करानेके तरीकेमें किया होता कि अस्पृश्यताकी प्रथा एजवाहोंके प्रति जितनी अन्यायपूर्ण है, सवर्ण हिन्दुओंके लिए भी उतनी ही पतनकारी है, तो यह बहुत अच्छा होता। उस सत्याग्रहमें जिसका उद्देश्य लोगोंको उचित बात बताकर उन्हें उसकी प्रतीति कराना हो और उस सत्याग्रहमें, जिसका उपयोग सरकारको और इस तरह सनातनी हिन्दुओंको कोई खास बात माननेपर मजबूर करना हो, बड़ा अन्तर है। सत्याग्रहियोंका उद्देश्य यह होना चाहिए कि वे सवर्ण हिन्दुओंको, जो अस्पृश्यताको धर्मका अंग मानते हैं, अपने मतसे कायल करें। इस तरीकेका परिणाम, निस्सन्देह, धीरे-धीरे प्रकट होगा, लेकिन चूँकि वह स्वेच्छापर आधारित होगा, इसलिए स्थायी होगा।

इस समस्याका सन्तोषजनक हल तो यही होगा कि दोनों समुदाय आपसमें बातचीत करके कोई स्वीकार्य समझौता करें। जबतक कानून वैसा बना रहता है जैसा