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अभीतक अस्पृश्यताके रोगका उन्मूलन नहीं हुआ है। फिर भी उन्होंने इस परिषद्को अपने मण्डपमें आयोजित होने दिया, यह एक शुभ लक्षण है। परिषद्में बहुतसे अन्त्यजेतर भाई-बहन भी थे। अन्त्यज परिषद्में शराब न पीने, चरखा चलाने और खादी पहननेकी प्रतिज्ञा ली गई। प्रतिज्ञाका एक-एक शब्द भाई बहनोंको समझा दिया गया था। अन्त्यज बहनें भी काफी बड़ी संख्यामें आई थीं। वे अपने साथ धूप ले कर आई थीं। धुआँ देखकर मैं कुछ गलतफहमीमें पड़ गया था। मैंने समझा कि वे बीड़ियाँ पी रही हैं। किन्तु मुझे बताया गया कि वह धुआँ धूपका है। पण्डालमें उपस्थित इन स्त्रियों और पुरुषोंके चेहरोंपर प्रसन्नता छाई हुई थी।

कालीपरज

यों तो सोजित्रामें आयोजित सभी सम्मेलन अपनी-अपनी जगह अच्छे थे, किन्तु कालीपरज परिषद्ने मेरे मनपर ज्यादा गहरा असर छोड़ा। पहले जिन परिषदोंका उल्लेख हो गया है, उनके पीछे व्यवहार-बुद्धि, सादगी, मितव्ययिता तथा फुरती दृष्टि गोचर होती थी, किन्तु कालीपरजको परिषद्में इस सबके साथ-साथ कला भी दिखाई दी। मैं सहज ही कह उठा कि मैंने बहुत-सी परिषदें देखी है, किन्तु स्वाभाविक सौन्दर्यको दृष्टिसे ऐसी परिषद् मैंने कदाचित् दूसरी नहीं देखी। अपने इस उद्गारमें मुझे अतिशयोक्ति नहीं जान पड़ती। ऐसा लगा मानो अदृश्य रूपसे स्वयं प्रकृतिने आकर वहाँ सजावट की है। कुदरतसे सीख लेना और उसे किसी प्रकारका आघात न पहुँचाना मेरी समझमें यही सच्ची कला है। जिस वेडछी ग्राममें यह परिषद् आयोजित हुई थी, वहाँ कुछ घर और झोपड़ियाँ थीं। किन्तु कालीपरज जातिके लोग न गाँवोंमें रहते हैं, न घरोंमें। वे मैदानोंमें घास-फूसकी झोपड़ियाँ डाल कर रहते हैं। वेडछीकी आबादी तीन-चारसौसे ज्यादा नहीं होगी। किन्तु इस छोटी-सी बस्तीकी झोपड़ियाँ कालीपरज लोगोंकी झोपड़ियोंसे अच्छी ही कही जायेंगी। शायद यही सोचकर परिषद् वेडछीमें रखी गई। साधारणतः परिषदें मैदानोंमें रखी जाती हैं। हमारे कलाकारोंने आसपास घूमकर देखा और प्राकृतिक सौन्दर्यसे सम्पन्न एक टुकड़ा परिषद्के ध्यानसे चुना। गाँवके पास ही वाल्मीकि नामकी नदी बहती है। वृक्षोसे सुशोभित टेकरियोंकी मालाके बीचसे होकर यह नदी नाचती हुई बहती चली जाती है। परिषद्के आयोजनकर्ताओंने इसी स्थानको पसन्द किया। मुख्य मंच बहते हुए पानीके ऊपर निर्मित किया गया और जिस तरह किसी वृक्षसे डाली फूट निकलती है, इसी प्रकार इस मंचको आगेतक बढ़ाकर उसे प्रतिनिधियोंके बैठनेकी जगहमें बदल दिया। सर्दियोंके दिन थे और पानी ठंडा था। इसलिए हमारे कला-प्रवीणोंने यह विचार किया कि प्रतिनिधियोंको छायाकी जरूरत नहीं है। इतना ही नहीं दोपहरके बाद धूप भी उन्हें पसन्द ही आयेगी, इसलिए स्वर्णिम आकाश-मण्डपका चँदोवा और नदीकी रेत लोगोंके लिए आसन बन गई। चूँकि नदी टेकड़ीके एक तरफ बहती है, इसलिए सामनेकी टेकड़ीसे नदीके इस किनारेतक नदीका सूखा किनारा है। नदीमें कीचड़ नहीं है, रेत है। इसलिए किसी भी प्रकारकी कृत्रिम सजावट, दरी-जाजम आदिकी जरूरत नहीं पड़ी। मुख्य मंचके ऊपर बाँसों और हरे पत्तोंका मण्डप या वितान