पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 26.pdf/७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४०
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बनाया गया था और वहाँतक जानेके लिए एक चौड़ा रास्ता छोड़ दिया गया था। इस चौडे रास्तेके दोनों ओर भी बाँस लगा दिये गये थे और उनपर बाँस लगाकर हरे पत्ते और लताएँ बाँध दी गई थीं। मंचपर चढ़नेके लिए एक बोरेमें रेत भरकर रख दी गई थी और वह रेतसे भरा हुआ बोरा सीढ़ीका काम देता था। तसवीरें भी नहीं थीं और सजावटमें एक इंच भी सूतका उपयोग नहीं किया गया था। यह कहनेकी आवश्यकता भी नहीं है कि ऐसी जगह सूतकी सजावट भी शायद ही शोभा दे। सूत मनुष्यकी कृति है और उसकी शोभा मनुष्यके घरमें है। जहाँ आकाशका वितान हो और रेतका आसन, वहाँ तो वृक्ष-पात ही शोभा दे सकते हैं। इसके सिवा सूतके प्रेमियोंको सूतका दुरुपयोग भी नहीं करना चाहिए। उसे तो चुटकी-चुटकी रुई और इंच-इंच सूत भी सँभालकर रखना चाहिए।

प्रदर्शनी

परिषद्से थोड़ी ही दूरी पर, किन्तु नदीके ही तटपर और टेकड़ियोंकी मालाके चरणमें चरखा-प्रदर्शनी आयोजित की गई थी। वहाँ लगभग ५० चरखे थे और उन्हें वृद्ध स्त्री-पुरुष और छ:-सात से लेकर १० वर्ष तकके बालक-बालिकाएँ चला रही थीं। इस व्यवस्थामें भी एक सूझ थी। जातिके तरुण लोग स्वयंसेवकोंकी तरह काम कर रहे थे। प्रदर्शित खादीमें से कुछ तो स्वयं कालीपरजके लोगों द्वारा काती, बुनी और रँगी गई खादी थी। बाकीकी मोटी खादी गुजराती खादी भण्डारकी ओरसे रखी गई थी। प्रदर्शनीके स्थानपर कालीपरजोंका विशेष बाँसुरी-वादन हो रहा था। वहाँ कुछ विशिष्ट नेताओंके चित्र और थोड़ा-बहुत साहित्य भी प्रदर्शित था। इस सारे आयोजनमें कहा जा सकता है कि खर्च तो कुछ भी नहीं हुआ। लाल, पीले पतले विदेशी कागजकी बनी हुई झंडियाँ जो साधारणतया मण्डपोंमें नज़र आती रहती हैं, वहाँ ढूँढ़े भी नहीं मिल सकती थीं। इन कागजोंकी सजावट न बुद्धि जाहिर करती है, न सुरुचि। यह तो मानो नींद बेचकर अनिद्रा रोग मोल लेने जैसी बात है। जहाँ-कहीं मैं कागजकी सजावट देखता हूँ, कलाकी इस हत्यापर मुझे क्रोध आता है। सोजित्रा भी इस दोषसे नहीं बच पाया था।

सूत्र-बद्ध

कालीपरज जाति भली-भाँति सूत्र-बद्ध है। वह स्वयं कपास पैदा करती है। यह जाति गरीब और सरल है। ये लोग विदेशी कपड़े पहनते हैं--उन्हें अभी इसका शौक नहीं लगा है, इतनी बात जरूर है। यदि कम दामपर खादी उपलब्ध होने लगे, तो वे उसे अवश्य पहनेंगे। बहनें छोटी साड़ी पहनती हैं और इसलिए उन साड़ियोंका वजन कम होता है। इसी कारण चरखा और खादी प्रचार इन लोगोंमें फैलता जान पड़ता है। एक साठ सालका बूढ़ा किसान अपने खेतकी देखभाल करते हुए भी हमेशा रातको और सवेरे कातता है। उसके कपड़े अपने काते हुए सूतमें से बने हुए थे और उसीमें से वह अपने बच्चोंको देनेका इरादा भी रखता है। इस तरह उद्देश्य यह है कि एकके बाद एक कुटुम्ब अपने लिए सूत कातने और बुनने लगें। जब मैंने इस आदमीसे सूत कातनेका कारण पूछा, तो उसने उत्तर दिया कि इससे पैसा