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कुछ प्रश्नोंके उत्तर

बाहरी दमनकी कार्रवाईका प्रतिरोध कर रहा हूँ। इसके सिवा उस समय में यह चाह रहा था कि कांग्रेस कार्यकारिणीके सभी पद एक ही दलके हाथमें रहें। इस सम्बन्धमें मेरे प्रयत्नोंको और साहा-प्रस्ताव सम्बन्धी मेरी कार्रवाईको एक समझनेकी भूल नहीं करनी चाहिए। ये दोनों बातें बिलकुल जुदा-जुदा हैं यहाँतक कि उनका एक दूसरेसे कोई सम्बन्ध भी नहीं है। ज्यों-ही मैंने देखा कि एक ही दलके हाथमें नियन्त्रण रखनेकी कोशिशसे आपसमें कटुता फैल रही है, मैंने कदम वापस ले लिया और पूरी तरह स्वराज्य दलकी बात मान लेनेकी घोषणा कर दी।

कहते हैं कि इस तरह झुक जानेसे आपकी नैतिक सत्ता समाप्त हो गई है?

चिपके रहनेसे नैतिक सत्ता सहेज कर नहीं रखी जा सकती। वह बिना माँगे मिलती है और बिना प्रयासके बनी रहती है। मुझे ऐसा अनुभव नहीं हुआ कि मेरी नैतिक सत्ता जाती रही है, क्योंकि अपनी जानकारीमें मैंने कोई भी ऐसा काम नहीं किया है कि मुझे अपने नैतिक सिद्धान्तोंके अनुसार न चलनेका दोषी ठहराया जा सके। मेरे बताये हुए स्वराज्य-प्राप्तिके साधनों, जैसे चरखेके प्रचारमें इन बहुतसे व्यक्तियोंका जो बौद्धिक सहयोग मुझे प्राप्त था उसे मैंने अवश्य खो दिया है।

असहयोगके हरएक कार्यक्रमके विफल हो जाने के बाद भी आप असहयोगपर क्यों आग्रह रखे हुए हैं? उसे स्थगित करने की बातके पीछे आपका क्या हेतु है?

आज मैं उसपर जोर नहीं दे रहा हूँ। पर मैं इस बातको कबूल नहीं करता कि उस कार्यक्रमका प्रत्येक अंग असफल हो गया है। बल्कि एक हदतक असहयोगका हरएक अंग सफल हुआ है। मैं उसे स्थगित करनेकी बात सिर्फ इसलिए करता हूँ कि मेरे लिए असहयोग जीवनका एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है और मुझे लगता है कि उसके द्वारा हिन्दुस्तानको ही नहीं, कहना चाहें तो सारी दुनियाको लाभ पहुँचा है, जिसका कि अभी हमको पर्याप्त अनुभव नहीं है। और इसलिए भी कि यदि फिर कभी मुझे देशके लोगोंमें व्यापक अहिंसा और परस्पर सच्चे सहयोगकी भावनाका वातावरण दिखाई दे और तबतक भी अगर हमें अपना ध्येय प्राप्त नहीं हो चुका होगा तो मैं राष्ट्रको फिरसे सत्याग्रहके मार्गपर जानेकी सलाह देनेमें आगा-पीछा नहीं करूँगा।

हिन्दू-मुस्लिम समस्याको आप किस तरह हल करना चाहते हैं?

दोनों जातियोंके सामने लगातार इस बातपर जोर देकर कि वे आपसमें आदरभाव और विश्वास पैदा करें, और हिन्दुओंसे इस बातका आग्रह करके कि चूँकि वे ज्यादा बलशाली है इसलिए हर लौकिक व्यवहारमें मुसलमानोंकी बात माने और यह स्पष्ट कर दें कि जो लोग अपनेको राष्ट्रवादी मानते हैं और जिनकी संख्या दूसरोंसे बहुत ज्यादा है वे विधान सभाओं या सरकारी पदोंकी भद्दी प्रतिस्पर्धामें भाग नहीं लेंगे। मैं यह दिखला कर भी इस उद्देश्यको सिद्ध करनेकी आशा करता हूँ कि सच्चा स्वराज्य थोड़े लोगों द्वारा सत्ता छीन लेनेसे नहीं, बल्कि सत्ताका दुरुपयोग होने पर जब कि सब लोगोंमें उसका प्रतिरोध करनेकी क्षमता आ जायगी तभी प्राप्त होगा। दूसरे शब्दोंमें स्वराज्य जनताको इस बातका बोध करा देनेसे प्राप्त किया जा सकता है कि उनमें शासन-सत्ताको नियमित और नियन्त्रित करनेकी क्षमता है?

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