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जजबातको गहरी चोट पहुँचाई गई थी। जिन हिन्दुओंने गोलियाँ चलाई और मुसलमानोंकी जानें लीं, वे भी बादकी हालतको और नाजुक बना देनेके जिम्मेदार हैं। यह जमीयत कोहाटके उन तमाम बाशिन्दोंके साथ, बिना जात-पाँतके भेद-भावके, हमदर्दी जाहिर करती है, जिनके जानोमाल इन दंगोंके दरम्यान जाया हुए हैं। एक मजहबी जमातकी हैसियतसे यह जमीयत महात्मा गांधीको तथा दूसरे राजनीतिक नेताओंको यह बताना अपना फर्ज समझती है कि जबतक मजहब और मजहबोंके प्रवर्तकों तथा मजहबी हलचलोंके नेताओंपर व्याख्यान और लेखोंके द्वारा किये जानेवाले आक्षेप पूरी तरह बन्द नहीं किये जायेंगे तबतक हिन्दुस्तानमें हिन्दू-मुस्लिम एकताकी स्थापना और उसे बनाये रखना कभी सम्भव नहीं होगा।

मैं जमीयतको इस प्रस्तावपर बधाई देने में असमर्थ हूँ। अभीतक कोहाटकी घटनाओंकी कोई निष्पक्ष जाँच नहीं हुई है। फिर भी ऐसा मालूम होता है कि दोनों पक्षके लोगोंने मुख्य तथ्योंपर अपनी राय स्थिर कर ली है। क्या यह बात साबित हो चुकी है कि कोहाटकी तमाम शर्मनाक घटनाओंकी जिम्मेदारी उस व्यक्ति या व्यक्तियोंपर ही है जिन्होंने कोहाटमें उक्त जोश और गुस्सा पैदा करनेवाले परचे छापे थे? क्या यह बात भी साबित हो चुकी है कि 'जिन हिन्दुओंने गोलियाँ चलाई और मुसलमानोंकी जानें लीं, वे भी उसके बादकी हालतको और भी नाजुक बना देनेके लिए जिम्मेदार हैं?' यदि पूर्वोक्त दोनों बातें असन्दिग्ध रूपसे साबित हो गई हों तो कमसे-कम वहाँके हिन्दू तो अपनी जानोमालकी हानिके लिए जमीयतकी ओरसे प्रदर्शित की गई किसी तरहकी हमदर्दीके मुस्तहक नहीं हैं; क्योंकि यह तो उनकी ही करनीका फल उन्हें मिला है। ऐसी अवस्थामें जमीयतका हिन्दुओंके साथ हमदर्दी जाहिर करना असंगत है। फिर मुझे और दूसरे राजनीतिक नेताओंको यह दिखानेमें जमीयतका मन्शा क्या है कि 'जबतक मजहब और मजहबोंके प्रवर्तकों तथा मजहबी हलचलोंके नेताओंपर व्याख्यान या लेखोंके द्वारा किये जानेवाले हमले बिलकुल बन्द न किये जायेंगे तब तक हिन्दुस्तानमें हिन्दू-मुस्लिम एकताकी स्थापना और उसे बनाये रखना कभी सम्भव नहीं होगा।' जमीयतका यह खयाल अगर सही है तो क्या एकताकी असम्भाव्यता ऐसी बात नहीं जिसपर राजनीतिक नेताओंके साथ-साथ खुद उसका भी ध्यान जाना चाहिए? और क्या इसीलिए कि कुछ व्यक्ति मजहबपर हमला करते हैं, हिन्दू-मुस्लिम एकताको जरूर ही असम्भव हो जाना चाहिए? जमीयतके कथनानुसार तो एक ही अविचारी हिन्दू या अविचारी मुसलमान हिन्दू-मुस्लिम एकताको असम्भव बना देनेके लिए काफी है। सौभाग्यसे हिन्दू-मुस्लिम एकताका अन्तिम आधार धार्मिक और राजनीतिक नेताओंपर निर्भर नहीं है। उसका आधार है दोनों जातियोंकी जनताका प्रबुद्ध निहित स्वार्थ। उन्हें कोई हमेशाके लिए गुमराह नहीं कर सकता। पर मैं आशा करता हूँ कि जमीयतका मूल प्रस्ताव इतना खराब न होगा जितना कि वह अनुवादमें मालूम पड़ता है।