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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

१६. मनुष्यत्वके हकका अमल करने के लिए अस्पृश्य लोग ब्राह्मणोंके खास मार्गोपर आये-जायें तो इससे क्या उनकी लालसा पूरी हो जायेगी?

मनुष्य सिर्फ रोटी खाकर ही नहीं जीता। बहुतसे लोग भोजन छोड़ सकते हैं, लेकिन आत्मसम्मानको नहीं छोड़ सकते।

१७. अस्पृश्य लोग इतने शिक्षित नहीं हैं कि वे अहिंसात्मक असहयोगके सिद्धान्तको पूरी तरह समझ सकें। ब्राह्मण लोग राजनीतिकी बनिस्बत धर्मकी ज्यादा चिन्ता करते हैं, इसलिए क्या इस विषयमें सत्याग्रह करनेसे हिंसा नहीं भड़क उठेगी?

यदि इसमें वाइकोमके प्रति इशारा हो तो अनुभवसे यह बात मालूम हो चुकी है कि 'अस्पृश्यों' ने आश्चर्यजनक आत्मसंयम दिखाया है। सवालका बादवाला भाग यह सूचित करता है कि ब्राह्मण लोग, जिनका इससे सम्बन्ध है, सम्भव है हिंसा कर बैठें। यदि वे ऐसा करें, तो मुझे बड़ा अफसोस होगा। मेरी रायमें तो तब वे धर्मके प्रति सम्मान प्रकट करनेके बदले धर्मका अज्ञान और उसके प्रति नफरत ही जाहिर करेंगे।

१८. क्या आपका कहना यह है कि जात-पाँत, धर्म और विश्वासके किसी प्रकारके भेदभावके बिना सबको समान हो जाना चाहिए?

जिस तरह जात-पाँत, वर्ण और धर्मका लिहाज रखे बिना हम लोगोंमें भूखप्यास इत्यादि सर्वसामान्य है उसी प्रकार मनुष्यत्वके प्राथमिक हकोंके बारेमें कानूनकी नजरोंमें तो सबको समान ही होना चाहिए।

१९. केवल महान् आत्माएँ ही, जिनके कर्म निःशेष हो चुके हैं, इस सर्वोच्च दार्शनिक सिद्धान्तको पहचान सकी हैं, और उसका पालन कर सकी हैं; मामूली गृहस्थ नहीं। मामूली गृहस्थ तो ऋषियोंके बताये गये मार्गका अनुसरण करते हैं और ऐसा करते-करते जन्म-मरणके फेरसे छुटकारा पा जाते हैं। ऐसी दशामें क्या इस सिद्धान्तका अनुसरण एक मामूली गृहस्थके लिए किसी भी प्रकार उपयोगी हो सकता है?

इस सीधे-सादे सत्यको माननेमें कि केवल जन्मके कारण कोई मनुष्य अछूत नहीं माना जा सकता, किसी भी उच्च दार्शनिक सिद्धान्तकी दरकार नहीं। यह इतनी सीधी बात है कि केवल कट्टर हिन्दुओंको छोड़कर सारी दुनिया उसकी कायल है। और मैंने इस कथनपर शंका उठायी है कि हम जैसी अस्पृश्यताका पालन करते हैं, वैसी अस्पृश्यताका सिद्धान्त ऋषियोंने बताया था।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ५-२-१९२५