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३३. दूसरेकी जमीनपर

एक महाशय कहते हैं:

आप हर बार हमसे कहते हैं, मुसलमानोंके सामने झुक जाओ। आप कहते हैं, उनके खिलाफ अदालतोंमें भी कदापि न जाओ। आपने कभी इस बातपर भी पूरी तौरसे विचार किया है कि आप जो-कुछ कहते हैं उसका नतीजा क्या होगा? आपने मानव-स्वभावका भी कोई ख्याल रखा है? अच्छा, बताइए, जब हमारी जमीनपर कोई हमसे बिना पूछे मस्जिद खड़ी करने लगे तो हम क्या करें? यदि बेईमान लोग हमपर रुपये लेनेका झूठा दावा करें और हमारी मिल्कियत जबरदस्ती हमसे छीनें, तो हम क्या करें? अपना जवाब देते समय आपको हम गरीबोंका भी ध्यान रखना चाहिए। आप यह तो कभी नहीं कह सकते कि आप हमारी हालतको नहीं जानते। अगर फिर भी आप हमारा कुछ भी खयाल न रखते हुए अपना फतवा दें और फिर हम आपके सदुपदेशोंको अवहेलना करें तो आप हमें दोष न दें। मैं यह कहना चाहता हूँ कि आप कई बार अन्धेर कर जाते हैं।

जो सज्जन मुझसे इस लहजेमें बातचीत करते हैं मुझे उनसे हमदर्दी है। मनुष्यस्वभावकी कमजोरियोंको तसलीम करनेके लिए मैं तैयार हूँ और इसका सीधा-सा कारण यही है कि मैं अपनी कमजोरियाँ भी जानता हूँ। लेकिन ठीक जिस तरह मैं अपनी सीमाका कायल हूँ, इसी तरह "मुझे क्या करना चाहिए और मैं क्या नहीं कर पाता हूँ," इसके भेदको भुलाकर मैं अपने आपको धोखा भी नहीं देता। इसी तरह यदि मैं इस भेदको भुलाकर दूसरोंसे यह कहूँ कि आप जो-कुछ कहना चाहते हैं वह केवल ठीक ही नहीं शायद उचित भी है, तो यह उन्हें धोखा देना होगा--और मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए। कितनी ही चीजें असम्भव होती हैं, पर फिर भी वही ठीक होती हैं। सुधारकका तो काम ही यह है कि वह असम्भवको अपने आचरणके द्वारा प्रत्यक्ष करके सम्भव बना दे। एडिसनके आविष्कारके पहले सैकड़ों मीलपर बैठे हुए बातें करनेको कौन सम्भव मानता? मारकोनी और एक कदम आगे बढ़ा और उसने बेतारको सम्भव बना दिया। हम रोज ही इस चमत्कारको देख रहे हैं कि कल जो चीज असम्भव थी आज वही सम्भव हो गई है। जो बात भौतिकशास्त्रमें चरितार्थ होती है वही मानस-शास्त्रपर भी घटित होती है।

अब व्यावहारिक सवालोंको लीजिए। दूसरेकी जमीनमें बिना इजाजतके मस्जिद खड़ी करनेका सवाल हलके लिहाज़से निहायत ही आसान सवाल है। अगर 'अ' का कब्जा अपनी जमीनपर है और कोई शख्स उसपर कोई इमारत बनाता है, चाहे वह मस्जिद ही हो, तो 'अ' को यह अख्तियार है कि वह उसे गिरा दे। मस्जिदकी शकलमें खड़ी की गई हरएक इमारत मस्जिद नहीं हो सकती। वह मस्जिद तभी कही



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