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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जायेगी जब उसके मस्जिद होनेका धर्म-संस्कार कर लिया जाये। बिना पूछे किसीकी जमीनपर इमारत खड़ी करना सरासर डाकेजनी है। डाकेजनी पवित्र नहीं हो सकती। अगर उस इमारतकी जिसका नाम झूठ-मूठ मस्जिद रख दिया गया हो, उखाड़ डालनेकी इच्छा या ताकत 'अ' में न हो, तो उसे यह हक बराबर है कि वह अदालतमें जाये और उसे अदालत द्वारा गिरवा दे। अदालतोंमें जाना उन असहयोगियोंके लिए मना है जो उसके कायल हो चुके हैं, उन लोगोंके लिए नहीं जो कायल नहीं है। फिर पूरा असहयोग तो हम अभी अमलमें लाये ही नहीं हैं। यदि किसी सिद्धान्तके अनुसार अमल करना केवल असुविधाजनक ही नहीं बल्कि हमारे असली उद्देश्यपर ही स्पष्टतया आघात करनेवाला बन जाय तो ऐसा हरएक सिद्धान्त दूषित कहलायेगा। जबतक मेरे कब्जेमें कोई मिल्कियत है तबतक मुझे उसकी हिफाजत जरूर करनी होगी--वह चाहे अदालतके बल द्वारा हो या अपने भुजबल द्वारा। असल में बात एक ही है।

सारे राष्ट्रकी तरफसे किया गया असहयोग एक प्रणालीके खिलाफ है या था। उसके मूलमें यह बात गृहीत कर ली गई थी कि आम तौरपर हमारे अन्दर एक-दूसरे में सहयोग रहेगा। पर जब हम आपसमें ही एक दूसरेसे असहयोग करने लगे हैं तब राष्ट्रकी तरफसे असहयोग करना एक धोखेकी टट्टी हो जाता है। व्यक्तिगत असहयोग तभी मुमकिन है जब हमारे पास एक टुकड़ा भी जमीन न हो; और यह बात सिर्फ संन्यासीके लिए ही मुमकिन है। इसीलिए धार्मिकताकी पराकाष्ठापर पहुँचनेके लिए हर तरहकी सम्पत्तिका त्याग आवश्यक माना जाता है। इस प्रकार अपने जीवन धर्मका निश्चय हो जानेपर अब हमें अपनी शक्ति-भर उसका पालन करना चाहिए; उससे अधिक नहीं। यह मध्यम-मार्ग है। यदि कोई डाकू 'अ' की मिल्कियत छीनने आये तो वह उसे तभी सब-कुछ देगा जब वह उसे अपना सगा भाई मानता हो। अगर ऐसा भाव उसके दिलमें पैदा न हो पाया हो, अगर वह उससे डरता हो और चाहता हो कि कोई आकर इसे मार-भगाये तो अच्छा है तो उसे चाहिए कि वह स्वयं उसको पछाड़ देनेकी कोशिश करे और उसका नतीजा भोगनेके लिए तैयार रहे। अगर वह डाकूसे लड़ना तो चाहता हो पर ताकत न हो, तो उसे डाकूको अपना काम करने देना चाहिए और फिर अदालतमें जाकर अपनी मिल्कियतको पानेकी कोशिश करना चाहिए। दोनों हालतोंमें उसके चले जाने और मिल जानेकी पूरी-पूरी सम्भावना है। अगर वह मेरी तरह विचारशील पुरुष हो, तो वह मेरी तरह इसी नतीजेपर पहुँचेगा कि यदि हम दरअसल सुखी रहना चाहें तो किसी किस्मकी मिल्कियत न रखें, या तभी तक रखें जबतक हमारे पड़ोसी उसे रखने दें। इस आखिरी स्थिति में हम अपने शरीरबलके द्वारा नहीं बल्कि कष्ट-सहन द्वारा अपना अस्तित्व रख पाते हैं। इसीलिए हद दरजेतक नम्रता और ईश्वरपर भरोसा रखनेकी जरूरत है। इसीको कहते हैं आत्मबलपर निर्भर रहना। यही श्रेष्ठतम आत्माभिव्यक्ति है।

आइए, हम इस सिद्धान्तको अपने हृदयमें स्थान दें--यह समझ कर नहीं कि कागजपर लिख रखनेकी दृष्टिसे यह एक अच्छा बौद्धिक और चित्तार्षक मन्तव्य है, बल्कि यह समझकर कि यह हमारे जीवनका एक नियम है, जीवन-धर्म है और हमें