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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

नहीं कि वह मुझ-जैसे व्यक्तियोंके नजदीक अपने-आपमें ज्यादा महत्त्वपूर्ण है; बल्कि इसलिए कि उसकी वहजसे स्वराज्यका रास्ता ही बन्द हो गया है। इस समितिमें औपचारिकताकी ओर इतना ध्यान दे दिया गया कि काम पूरा होना कठिन हो गया। जरूरत इस बातकी थी कि समितिके इस प्रकारके पचड़ेमें पड़नेके बजाय बिलकुल अनौपचारिक रूपसे बात हो और इस समितिका आकार घटा दिया जाये। ऐसा ही किया गया। हकीम साहबके मकानमें हर सम्प्रदायके कुछ सज्जन मिले। जो नतीजा निकला सो पण्डित मोतीलालजी नेहरूने संक्षेपमें प्रकाशित किया ही है। मैं भी मानता हूँ कि चिन्ता या निराशाका कोई कारण नहीं है, क्योंकि सब लोग इस सवालको हल करनेके इच्छुक हैं। कुछ लोग आज ही इसका फैसला कर लेना चाहते हैं। कुछ कहते हैं अभी वक्त नहीं आया है। कुछ तो इसे हल करनेके लिए सब कुछ छोड़ देनेको तैयार हैं। कुछ होशियारीसे कदम रखना चाहते हैं और जबतक उन्हें उनकी कमसे-कम और अपरिहार्य बातें न मंजूर हो जायें तबतक इन्तजार करना चाहते हैं। पर इस बातपर सभी लोग सहमत हैं कि इसका हल हो जाना स्वराज्यके लिए परम आवश्यक है। और स्वराज्य तो सभीको दरकार है, इसीलिए जो व्यक्ति इसका उपाय खोजने में लगे हैं यह बात उनके वशके बाहरकी नहीं होनी चाहिए। जिस दिन हम लोग २८ फरवरीको इकट्ठा होनेका निश्चय करके बिदा हए, उस दिन इस एकताकी सम्भावना जितनी थी, उतनी पहले कभी नहीं थी। अब इस बीच सभी लोगोंको समझौतेके नये सूत्रोंकी खोज करनी है।

जातिगत प्रतिनिधित्वके विषयमें लोग मेरा मत जानना चाहेंगे। मैं इसके बिलकुल खिलाफ हूँ। परन्तु मैं ऐसी किसी भी बातको मान लेनेके लिए तैयार हूँ जिससे शान्ति बने रहनेका भरोसा हो जाये और जो दोनों जातियोंके लिए सम्मानपूर्ण हो। पर अगर दोनों जातियोंकी ओरसे पेश की हुई तजवीजपर समझौता न हो तो मेरा सुझाया गया उपाय काम दे सकता है। पर अभी मुझे उसकी चर्चा करनेकी जरूरत नहीं है। मैं आशा करता हूँ कि दोनों जातियोंके जिम्मेवार लोग चाहे खानगी तौरपर बातें करके अथवा सर्वसाधारणमें अपनी रायें जाहिर करके एकताको साधनेकी दिशामें कोई बात उठा न रखेंगे। मैं यह भी आशा रखता हूँ कि अखबारवाले भी ऐसी कोई बात नहीं लिखेंगे जिससे दल-विशेषको नाराजी हो; वे जहाँ ठीक समर्थन न कर पायें वहाँ समझदारीके साथ चुप रहें।

दक्षिण आफ्रिकाके हिन्दुस्तानी

दक्षिण आफ्रिकाके भारतीयोंके शिष्टमण्डलको जो उत्तर वाइसरायने दिया है उसमें सहानुभूति तो है परन्तु उसमें उन्होंने किसी बातका वादा नहीं किया है। उससे प्रकट होता है कि उन्होंने संघ सरकारकी कठिनाइयोंका जरूरतसे ज्यादा खयाल रखा है। एक सरकारका दूसरी सरकारकी कठिनाइयोंका खयाल रखना ठीक ही है, परन्तु यह खयाल रखना सहज ही जरूरतसे ज्यादा हो जा सकता है। जब संघ सरकारके सामने ऐसा मौका था तब उसने कोई खयाल न किया। भारत सरकारके सामने ऐसे अनेक अवसर आये, पर एक दफाको छोड़कर, हर बार वह संघ सरकारके सामने