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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मेरे खयालसे कि उनकी अनुपस्थितिका कारण यह है कि अपना अस्तित्व बनाये रखने का उनके पास यही एक रास्ता रह गया था।

मेरा खयाल है कि यह मिथ्या आरोप लगाना है।

क्या आप महसूस करते हैं कि रचनात्मक कार्यमें विश्वास रखनेवाले और कौंसिल-प्रवेशके रास्तेम अड़चन पैदा करने में कतई विश्वास न रखनेवाले लोगोंका यह अस्वाभाविक मेल जनताके मन में एक राजनीतिक अविश्वास पैदा कर रहा है ?

जनताका मन केवल कार्यसे प्रभावित होता है। ठोस कार्यके अतिरिक्त उसपर अन्य किसी भी चीजका प्रभाव नहीं पड़ता। ठोस काम और आत्मत्यागको देखते ही जनताका मन सहज ही प्रभावित हो जाता है; अन्यथा जनताका मन कुम्भकर्णकी तरह सो जाता है, वह कुछ भी नहीं सुनता ।

क्या आपका विचार है कि जनताको शिक्षा देने के लिए किसी राजनीतिक शिक्षाको जरूरत है?

हाँ, और चरखा ही बह राजनीतिक शिक्षा है।

यदि ऐसा है तो वह शिक्षा देनका काम किसे करना चाहिए?

निस्सन्देह उन ही लोगोंको जिनके मनमें उसके प्रति अभीतक जीवन्त आस्था बनी हुई है। ऐसे ही लोगोंको जनताको शिक्षित करनेका काम करना चाहिए।

क्या उनको इसके लिए किसी संगठनकी दरकार नहीं ?

मैं अभी कलकत्तासे आ रहा हूँ। मैंने वहाँ देखा है कि दो नवयुवक आर्थिक या अन्य तरहको किसी भी मददके बिना अपना काम बिलकुल ठीक-ठीक, कुशलतापूर्वक और व्यवस्थित रूपसे कर रहे हैं। उनको किसी संगठनकी जरूरत नहीं। चरखेकी यही खूबी है।

क्या अपने को सिंहके गुणोंसे युक्त माननेवाले, हमारे शासकोंमें हृदय-परिवर्तन भी सम्भव है?

उनमें हृदय परिवर्तन सम्भव है, अन्यथा असहयोगका कोई उपयोग नहीं। पहले तो असहयोगियोंमें हृदय परिवर्तन होने दीजिए, फिर शासकोंके हृदयोंमें परिवर्तन होगा ही। मेरे मनमें इस सम्बन्धमें कोई संशय नहीं है।

मैं आपका ध्यान पशु-जगतकी ओर आकर्षित करता हूँ। क्या आप समझते हैं कि शेर और भेड़ सचमुच एक घाट पानी पी सकते हैं ?

नहीं; लेकिन इस उदाहरणसे मानव-जगतके बारेमें कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता क्योंकि मानव तो आखिर मानव रहेगा, फिर चाहे वह सूत कातने में विश्वास करता हो या कौंसिलोंके काममें बाधाएँ पैदा करने में अथवा चाहे वह निरंकुश शासक और गुलामोंकी प्रथामें विश्वास करता हो, चाहे मानव समाजकी बन्धुत्व भावनामें।

[अंग्रेजीसे]

अमृतबाजार पत्रिका, १४-५-१९२५