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राष्ट्रीय कांग्रेसके अपने भीतरी कार्यक्रमका उद्देश्य विभिन्न जातियोंके बीच एकता स्थापित करना था, और हिन्दू-मुस्लिम एकता इस बृहत्तर एकताका प्रतीक थी। अपने दौरोंमें उन्होंने जो-कुछ देखा, उससे उन्हें लगा कि दोनों बड़े समुदाय — हिन्दु और मुसलमान — एक-दूसरेको अविश्वासकी दृष्टिसे देखते हैं। १४ मईको नवाखलीमें बोलते हुए उन्होंने इस वैमनस्यके लिए दोनों पक्षोंको दोषी ठहराया और घोषणाकी कि यदि दोनों समुदायोंके लोग एक होकर रहने के लिए कृतसंकल्प हो जायें तो संसार- की कोई भी शक्ति उन्हें अलग नहीं कर सकती। आंग्ल-भारतीयोंके एक प्रतिनिधिको उन्होंने स्पष्ट आश्वासन दिया कि बड़े समुदायोंका छोटे समुदायोंके प्रति यह एक पवित्र कर्तव्य है कि वे उन्हें संरक्षण दें (पृष्ठ १८७)। उन्होंने एक समुदाय द्वारा दूसरेको ठोस सहायता देने की सलाह देते हुए लोगोंसे बंगालके आदर्शका अनुकरण करनेकाे कहा, "जहाँ बाढ़के दिनोंमें मुख्य रूपसे मुसलमान बस्तियोंकी सहायता उन संगठनोंने की थी जिनमें हिन्दुओंकी प्रधानता थी" (पृष्ठ २०६)।

जब किसीने ताना कसते हुए उनसे यह कहा कि और जातियोंकी बात तो छोड़िए, खुद हिन्दुओंमें खान-पान, पूजा-पाठमें न जाने कितनी विभिन्नता है, तो गांधीजीने छूटते ही जवाब दिया : "मैं जिस ऐक्यके लिए लालायित हूँ, वह हृदयोंका ऐक्य है। यह सभी बन्धन-बाधाओंसे परे है तथा उनके होते हुए भी कायम रह सकता है" (पृष्ठ ३३०)। इस समस्याके प्रति अपने यथार्थवादी दृष्टिकोणका परिचय देते हुए उन्होंने साम्प्रदायिक मतभेदोंके बावजूद एनी बेसेंट-जैसे लोगों द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्त करनेके लिए किये जा रहे प्रयत्नोंकी सराहना की। उनके विचारसे उन दोनों ही तरहके लोगोंका प्रयत्न सही था — उनका भी जो मतभेदोंके बावजूद स्वतन्त्रता प्राप्त करनेकी कोशिश कर रहे थे और उनका भी जो स्वतन्त्रताका मार्ग प्रशस्त करनेके लिए मतभेदोंको मिटाना चाहते थे (पृष्ठ ४२३) ।

अस्पृश्यताकी समस्या उनके हृदयको मथती रही। अस्पृश्योंको उन्होंने मनमें "बदला लेनेकी भावना" रखने के बजाय “गरिमापूर्ण रुख" अपनानेकी सलाह दी (पृष्ठ १४)। उन्होंने दक्षिणके अन्त्यज संत नन्दका दृष्टान्त सामने रखकर उनसे उनका अनुकरण करनेको कहा। इस संतको उन्होंने “ सत्याग्रहकी मूर्ति" कहा (पृष्ठ ७२)। दूसरी ओर उन्होंने सवर्ण हिन्दुओंसे इन तिरस्कृतोंका सत्कार करनेका अनुरोध किया (पृष्ठ २८४) । अस्पृश्यताके पीछे उन्हें घृणाका भाव दिखाई देता था; उन्होंने सवर्णों- से कहा कि इस भावको हर हालतमें त्याग देना चाहिए (पृष्ठ ३९९)। जो लोग इस सुधार-आन्दोलनकी धीमी प्रगतिसे अधीर हो रहे थे, उनका उचित कर्त्तव्य सम- झाते हुए उन्होंने कहा कि ऐसे सुधार ऊपरसे थोपे नहीं जाते; बल्कि भीतरसे उद्भूत होते हैं। किन्तु साथ ही उन्होंने स्पष्ट देखा कि अस्पृश्यताके "दुर्गकी नींव दिन- प्रतिदिन खोखली हो रही है।” (पृष्ठ २९९)। उन्होंने लोगोंको हिन्दू-धर्मकी अपनी यह कल्पना बार-बार समझाई कि वह अपने अनुयायियोंकी संख्याको गिनते रहनेवाला धर्म नहीं है (पृष्ठ ११०)। इस धर्मकी सम्भावनाएँ तो इतनी विस्तृत हैं कि किसी भी सच्चे हिन्दूको बौद्ध, जैन, ईसाई या मुसलमान, सभी अपने धर्मका अनुयायी मान सकते