पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 27.pdf/१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

सात

हैं। स्वयं बुद्धका जीवन हिन्दू-धर्मकी भावनासे ओतप्रोत था। उनके लेखे बौद्धधर्म हिन्दू धर्मका ही ऐसा व्यावहारिक रूप था जिसका आचरण सर्वसाधारणके लिए आसान था। तथापि गांधीजी व्यक्तिके अपने पारम्परिक धर्मको उसके जीवन-मरणका सवाल मानते थे। उन्होंने कहा, आदमी जैसे अपनी पोशाक बदल लेता है, वह उसी प्रकार अपना धर्म परिवर्तन नहीं कर सकता। धर्म तो हृदयका विषय होता है (पृष्ठ १९३–९४) । ईसाई धर्मका प्रचार करनेवाली महिलाओंकी सभामें बोलते हुए उन्होंने राजनीतिक और धार्मिक बातोंका भेद पूछते हुए कहा, "क्या जीवनके ऐसे कोई एक- दूसरेसे बिलकुल ही अलग-थलग विभाग किये जा सकते हैं? ...धर्म-विहीन राजनीतिसे दुगंध आती है और राजनीतिसे विच्छिन्न धर्म निरर्थक है" (पृष्ठ २०९)।

उनके कर्म-संकुल जीवनकी सभी कठिनाइयोंमें राम-नाम उनका ऐसा अचूक सम्बल था, जो बराबर उनकी रक्षा करता रहा। हम इसे उनकी आस्थाकी पुंजीभूत अभिव्यक्ति कह सकते हैं। एक लेखमें रामनामकी महिमा बताते हुए वे स्वीकार करते है : “मेरा निजी जीवन सार्वजनिक हो गया है। दुनियामें मेरे लिए एक भी ऐसी बात नहीं है जिसे मैं निजी बना कर रखू। मेरे प्रयोग आध्यात्मिक हैं।... इन प्रयोगोंका आधार बहुत-कुछ आत्मनिरीक्षण है। मैंने 'यथा पिण्डे तथा बह्माण्डे' की उक्तिके अनुसार प्रयोग किये हैं। इनके पीछे मेरी यह मान्यता है कि जो बात मेरे विषयमें सम्भव है वह दूसरोंके विषयमें भी सम्भव होगी" (पृष्ठ ११.१) । उनका विचार था कि धार्मिक व्यक्ति विनयशील तो होगा ही, इसलिए स्वयंको सुधारे बिना संसारको सुधारने के लिए व्यग्न रहनेवाले सुधारक उन्हें नहीं रुचते थे। उनका खयाल था कि आध्यात्मिक प्रगति ईश्वरके नामपर की गई सेवाओं द्वारा फलित होती है। १६ जुलाईको च० राजगोपालाचारीको लिखे पत्रमें वे कहते हैं : “शारीरिक और बौद्धिक तौरसे जिस वातावरणमें मैं रहता हूँ, मुझपर उसका बिलकुल असर नहीं पड़ता।.. आपकी साधना इसीमें है कि आप अपने क्षेत्रका विकास करें तथा हाथ-कताईके अपने सिद्धान्तको व्यावहारिक रूप दें" (पृष्ठ ३९९) ।

अहिंसामें उनकी आस्था दृढ़तर होती चली गई और यह आस्था नित्य नूतन रूपोंमें अभिव्यक्त होती रही। उन्होंने १५ जूनको शरतचन्द्र बोसको लिखा: “अहिंसा तो प्रेम है। वह मौन और करीब-करीब गुप्त रूपसे अपना असर पैदा करती है।.. मित्रों और सगे-सम्बन्धियोंके बीच प्रेमका कोई करिश्मा नहीं होता। वे एक-दूसरेको स्वार्थवश प्यार करते हैं; प्रबुद्धताके आधारपर नहीं। वह तो तथाकथित विरोधियोंके बीच ही अपना करिश्मा दिखाता है। इसलिए जरूरत इस बातकी है कि आदमी जितनी भी दयालुता और दानवीरता दिखा सकता है वह सारीकी-सारी अपने विरोधी यां आततायीके प्रति दिखाई जाये" (पृष्ठ २४९-५०)। वे क्रान्तिकारियोंसे भी अपनी बात कहते रहे। उदाहरणके लिए हम "फिर वही” (पृष्ठ ४७–५२) और "कूदनेको तत्पर" (पृष्ठ १३५–४०) शीर्षक लेख ले सकते हैं। उन्होंने उनके साहस और आत्मबलिदानको भावनाकी सराहना की, किन्तु साथ ही बड़े स्पष्ट शब्दोंमें उन्होंने अहिंसामें अपनी अडिग आस्थाकी घोषणा की। उनके विचारसे तबतक स्वयं