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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

नहीं समझ पाये हैं। चरखा चलानेसे ठीक आमदनी नहीं होती, इस आपत्तिके सम्बन्धमें उन्होंने विद्यार्थियों को हल्की-सी फटकार बताते हुए कहा कि इस प्रकारके तर्क उपस्थित करनेकी आदत बचपनसे ही डाल लेना और अपने भावी जीवनको नष्ट करना उचित नहीं है। आप लोग इस विषयपर विचार करते समय अधिक व्यापक दृष्टिकोणसे काम लें और चरखमें विश्वास कायम रखें। आप अपने सुख-चैनकी बात न सोचें, बल्कि इस बातको समझने की कोशिश करें कि आपका काता हुआ एक-एक गज सूत भारतको समस्याओं को सुलझानेमें सहायक होगा। उपाय आपके हाथों में है और मुझे आशा है कि आप मेरे कार्यक्रमके अनुसार कार्य करेंगे।

हिन्दू-मुस्लिम समस्याका उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि जो बुजुर्ग लोग सरकारी नौकरीके बारेमें सोचते हैं, जो लोग कौंसिलोंमें जाना चाहते हैं, वे झगड़ें तो झगड़ें, लेकिन विद्यार्थियों को न तो इससे कोई सरोकार होना चाहिए और न उनके पास इसके लिए समय ही है।

[अंग्रेजीसे]

अमृतबाजार पत्रिका, १७-५-१९२५


५४. भाषण : कोमिल्लामें
१५ मई, १९२५
 

इस मानपत्रके लिए आभार मानना शिष्टाचार-मात्र कहा जायेगा, क्योंकि इस आश्रमको अस्तित्वमें लाने में मेरा भी हिस्सा है, यह बात आपने स्वीकार की है। जब मैं बंगालमें आनेकी तैयारी कर रहा था तब मेरी आप-जैसे युवकोंसे मिलने और आपका काम देखनेकी प्रबल इच्छा थी। आप-जैसे युवकोंके स्वार्थत्यागसे मैं भली-भाँति परिचित हूँ। मैं जानता हूँ कि जबतक ऐसे स्वार्थत्यागी लोग हिन्दुस्तान- में पर्याप्त संख्यामें उत्पन्न नहीं हो जाते तबतक देशके स्वतन्त्र होनेकी आशा नहीं है। प्रत्येक युवकके लिए त्याग ही भोग होना चाहिए। मैंने त्यागको कभी दुःखकी अवस्था नहीं माना है और जो मनुष्य त्यागको दुःख मानता है, उसका त्याग सदा नहीं टिक सकता। इसलिए अपने भ्रमणमें जब-जब महान् त्यागके उदाहरण मेरे सामने आते हैं और मैं ५०० या १००० रुपये मासिक वेतन छोड़कर बहुत कम पैसे लेकर अपना गुजारा करनेवाले युवकोंको देखता हूँ तब मुझे कोई दुःख नहीं होता; प्रत्युत मुझे यह अनुभव होता है कि ऐसे युवकोंने खोया कुछ नहीं है, क्योंकि वे बहुत धन बटोरनेकी झंझटसे मुक्त हो गये हैं।

१. महादेव देसाईके यात्रा-विवरणसे उद्धत। यह आश्रमकी ओरसे दिये गये मानपत्रके उत्तरमें दिया गया था।

२. गांधीजी जब १९२० में बंगालका दौरा कर रहे थे तब उन्होंने इस आश्रमकी स्थापनाकी योजना स्वीकृत की थी।