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भाषण : कोमिल्लामें

किन्तु मैं एक बातपर पूरा जोर देना चाहता हूँ। हम जब सेवाके निमित्त किसी वस्तुका त्याग करते हैं तब किसी-न-किसी अन्य वस्तुको ग्रहण भी करते हैं। मैं जानता हूँ कि कुछ युवक यह मानते हैं कि किसी वस्तुका त्याग करना ही मानो सब-कुछ पा जाना है। ऐसा सोचना भारी भूल है। हमें त्यागके साथ उस कार्यका ज्ञान भी होना चाहिए जो हमें करना है; और तभी हमारा जीवन सन्तोषमय हो सकता है। इसका मतलब यह है कि हमें अपने समस्त कार्य विवेकपूर्वक करने चाहिए। मेरे विचारसे आज भारतकी सेवा करनेके लिए जो युवक तैयार हैं उनके सम्मुख एक ही आदर्श रहना चाहिए, वह यह है कि हम करोड़ों निरुद्यमी लोगोंको उद्यमी कैसे बनायें। अत: चरखेको इसके एकमात्र साधनके रूपमें स्वीकार किये बिना काम नहीं चलनेका। इसीलिए मैं यहाँकी चिकित्सा सम्बन्धी और [चिकित्सा] विद्यालय सम्बन्धी प्रवृत्तिको गौण मानता हूँ। इन दोनों प्रवृत्तियोंको उसी हदतक स्थान दिया जा सकता है जिस हदतक ये चरखेकी प्रवृत्तिकी पूरक हों। इसलिए आपके विद्यालयमें भी चरखे और खादीकी प्रवृत्ति चलती है, यह जानकर मुझे प्रसन्नता हुई। मेरी सलाह है कि इस विद्यालयके संचालक यह प्रतिज्ञा कर लें कि एक निश्चित तारीखके बाद विद्यालयमें खादी पहनकर न आनेवाले किसी लड़के या लड़कीको प्रवेश नहीं दिया जायेगा। सभी माता-पिताओंको सूचना भेज दी जानी चाहिए कि विद्यालयके लड़कों और लड़कियोंको अनिवार्य रूपसे सूत कातना होगा और खादी पहननी होगी। औषधालयके सम्बन्धमें भी यही नियम लागू होगा। मैं जिसकी चिकित्सा करता उसे भी खादी पहनाने की बात मेरे मनमें जरूर आती। यों तो औषधालय बहुतेरे हैं। यह कोई नई प्रवृत्ति नहीं है, इसीलिए युवकोंमें इसे करनेकी क्षमता है। मैं आशा करता हूँ कि जिन्होंने सेवा और स्वार्थत्यागकी दीक्षा ली है वे देशमें ऐसी प्रवृत्तिमें भाग लेंगे जो कठिनसे-कठिन, व्यापकसे-व्यापक और अधिकसे-अधिक फलदायिनी हो।

[गुजरातीसे]

नवजीवन, ७-६-१९२४






१. भाषणसे पूर्व डॉ. सुरेश वन ने कहा था कि हम, 'औषधालय ही नहीं, एक चिकित्सा-विद्यालय भी खोलना चाहते हैं।' गांधीजीने यह बात उसके उत्तरमें कही थी।