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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

स्थानीय ही हैं, कुछ शिकायतें व्यक्तियोंसे सम्बन्धित हैं, और कुछ ऐसी हैं जो हिन्दू और मुसलमान, दोनोंको एक-दूसरेसे हैं; सच्ची शिकायत तो पहली शिकायत ही है। उन महाशयने स्वीकार किया कि वही मुख्य शिकायत है अन्य शिकायतें तो उसमें से ही निकलती हैं। उन्होंने कहा कि गांधीजी, हिन्दू दुकानदार तो हमारे हाथ मिठाई भी नहीं बेचते।

हाँ, मैं समझा। यह एक वास्तविक शिकायत है; लेकिन हर बातको बढ़ाचढ़ा कर शिकायतका रूप नहीं देना चाहिए, जैसा कि आपने शुरूमें किया था। उससे तो ऐसा लगता है मानो पूरी मुसलमान जाति उसका शिकार है। मैं हिन्दुओंसे कहता हूँ कि यदि वे हिन्दूधर्मकी रक्षा अस्पृश्यता सम्बन्धी किसी वृहत् आचारसंहिताके अनुसार कर रहे हैं, तो बेहतर होगा कि हिन्दूधर्म समाप्त हो जाये । आप भारतको जजीरत-उल-अरबमें नहीं बदल सकते। अतीतमें हिन्दुओंने सभी राष्ट्रोंके लोगोंको अपने में मिलाया था। मुझे विश्वास है कि हमें अपने छुआछूत सम्बन्धी नियमोंमें परि- वर्तन करने होंगे और उन अनावश्यक प्रतिबन्धोंको, जो हिन्दूधर्मको बलशाली बनानेके बजाय उसका गला घोटते हैं; दूर करना होगा। हम अलग रहनेवाले कभी नहीं थे, हम सबसे मिलजुल कर रहने वाले थे। हिन्दूधर्मकी खूबी है कि वह कभी इस्लाम या ईसाई धर्मकी तरह मिशनरी धर्म नहीं रहा, जो कि अनुयायियोंकी संख्या गिनने में ही रहते हैं। यह धर्म एक तरहसे सहज सहविकास करता हुआ अनजाने ही लोगोंको अपने में मिलाता रहा है। मैं अपने हिन्दू मित्रोंसे पूछता हूँ कि जब किसी यूरोपीय व्यापारीसे चाकलेट इत्यादि खरीदनेमें हमें कोई आपत्ति नहीं है तब हम अपने हल- वाइयोंको मुसलमानोंके हाथ मिठाइयाँ बेचनेसे क्यों रोकते हैं।

[अंग्रेजीसे]

यंग इंडिया, २-७-१९२५


५८. भाषण : स्त्रियोंकी सभा कोमिल्लामें
१६ मई, १९२५
 

महात्माजीने अभिनन्दन-पत्रके जवाबमें कहा कि इस अभिनन्दन-पत्रको लेते हुए मुझे प्रसन्नता हो रही है। उस समय मुझे और भी प्रसन्नता होगी, जब सभी. बहनें सूत कातने लगेगी और खद्दर पहनने लगेगी। आप लोग सीताके आदर्शका अनुकरण करें। सीताजीका आदर्श नितान्त शुचिताका आदर्श था। उस जमानेमें चरखेसे काते हुए सूतके बने कपड़े का प्रयोग होता था और उस युगमें देशमें गरीबी थी ही नहीं। विदेशी कपड़ा अशुद्ध है; वह आपके शुद्ध शरीरपर पहनने योग्य वस्त्र नहीं है। मैं आशा करता हूँ कि आप लोग विदेशी वस्त्र न पहनने की शपथ लेंगी। आप लोगोंसे

१. सभामें मेंट किये गये अभिनन्दन-पत्रके उत्तरमें गांधीजीने हिन्दीमें भाषण दिया था। मूल भाषण उपलब्ध नहीं है।