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रामनामकी महिमा

मेरा सादर निवेदन है कि आप अस्पृश्यताका कलंक मिटा दें। जो लोग साथी मानवों- को धर्मके तथाकथित आदेशके कारण तिरस्कारकी दृष्टि से देखते हैं, वे एक अपवित्र और धर्मविहीन कार्य करते हैं। रामचन्द्र निषाद — एक चाण्डाल — को हृदयसे लगाकर और भी शुद्ध हुए।

[अंग्रेजीसे]

अमृतबाजार पत्रिका, १७-५-१९२५


५९. रामनामकी महिमा

एक भाई पूछते हैं :

आपने एक बार काठियावाड़में भाषण देते हुए कहा था, मैं जो तीन बहनोंके साथ पापमें लिप्त होनेसे बचा सो केवल रामनामके बलपर ही। इस बारेमें 'सौराष्ट्र' पत्रने कुछ ऐसी बातें लिखी हैं जो समझमें नहीं आतीं। इसका अधिक खुलासा करेंगे तो कृपा होगी।

इस पत्रके लेखकसे मेरा परिचय नहीं है। जब मैं बम्बईसे रवाना हुआ था तब उन्होंने यह पत्र अपने भाईके हाथ मेरे पास भेजा था। उससे उनकी तीन जिज्ञासा व्यक्त होती है। ऐसे प्रश्नोंकी चर्चा आमतौरपर सार्वजनिक रूपसे नहीं की जा सकती। यदि सर्वसाधारणजन मनुष्यके खानगी जीवनमें गहरे पैठनेका रिवाज डालें तो यह स्पष्ट है कि उसका परिणाम बुरा हुए बिना न रहेगा।

परन्तु मैं इस उचित अथवा अनुचित जिज्ञासासे नहीं बच सकता। मुझे इससे बचनेका अधिकार नहीं है और ऐसी मेरी इच्छा भी नहीं है। मेरा निजी जीवन सार्वजनिक हो गया है। दुनियामें मेरे लिए एक भी ऐसी बात नहीं है जिसे मैं निजी बनाकर रखू। मेरे प्रयोग आध्यात्मिक हैं। उनमें से कुछ नये हैं। इन प्रयोगोंका आधार बहुत कुछ आत्म-निरीक्षण है। मैंने 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्ड' की उक्तिके अनुसार प्रयोग किये हैं। इनके पीछे मेरी यह मान्यता है कि जो बात मेरे विषयमें सम्भव है वह दूसरोंके विषयमें भी सम्भव होगी। इसलिए मुझे कुछ गुह्य प्रश्नोंके उत्तर देने की भी जरूरत पड़ जाती है।

फिर मुझे पूर्वोक्त प्रश्नका उत्तर देते हुए रामनामकी महिमा बतानेका अवसर भी अनायास ही मिलता है। उसे मैं हाथसे कैसे जाने दे सकता हूँ?

किन्तु इस प्रश्नकर्तासे और जो अन्य लोग बादमें प्रश्न करें उनसे भी मुझे यह कह देना जरूरी है कि यदि वे किसी अखबारके आधारपर कोई प्रश्न पूछे तो वे उस अखबारको मेरे पास अवश्य भेजें। मैं कई बार कह चुका हूँ कि मैं अखबार नहीं पढ़ता, क्योंकि मेरे लिए वह सम्भव नहीं है। 'सौराष्ट्र' में क्या लिखा है यह

१. अंशतः उद्धृत।