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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मैं नहीं जानता। मेरे भाषणोंको रिपोर्ट लेना मुश्किल होता है। महादेव भाई रिपोर्ट लेते हैं, किन्तु मैं उसे भी सदा सही नहीं मानता, क्योंकि जहाँ सूक्ष्म अथवा नये विचार व्यक्त किये जाते हैं, वहाँ एक शब्दकी भी भूल होनेसे अनर्थ हो सकता है। अतः जहाँ मेरे विचारोंसे अपरिचित संवादताता मेरे भाषणोंकी रिपोर्ट लेते हैं वहाँ उनकी रिपोर्ट कभी विश्वसनीय नहीं हो सकती। मैंने कई बार कहा है कि पाठक उनको पूरे तौरपर सही मानकर न चलें। जब उन्हें किसी बातपर सन्देह हो तो वे मुझे पत्र लिखकर पूछ लें और साथमें जिस पत्रमें मेरा वह भाषण पढ़ा हो मुझे उसका वह अंक भी भेजें।

इस प्रस्तावनाके पश्चात्, 'सौराष्ट्र' ने क्या लिखा है यह न जानते हुए भी मैं यह बताता हूँ कि मैं किस तरह इन तीनों प्रसंगोंमें ईश्वरकृपासे बच सका। ये तीनों प्रसंग वार-वधुओंसे सम्बन्ध रखते हैं। मुझे इनमें से दो के पास भिन्न-भिन्न अवसरों- पर मेरे मित्र ले गये थे।

पहले अवसरपर मैं मित्रका झूठा लिहाज करके वहाँ पहुँच गया और यदि ईश्वरने न बचाया होता तो जरूर पतित हो जाता। इस मौकेपर मैं जिस वेश्याके कोठेपर ले जाया गया था, उस वेश्याने ही मुझे तिरस्कृत किया, क्योंकि मैं यह विलकुल नहीं जानता था कि ऐसे अवसरपर किस तरह, क्या बोलना चाहिए और कैसा व्यवहार करना चाहिए। मैं इससे पहले ऐसी स्त्रियोंके पास बैठनातक लज्जा- जनक मानता था; इसलिए मैं इस घरमें दाखिल होते समय, भी काँप रहा था। भीतर पहुँचने पर उसके मुंहकी ओर भी न देख सका, अत: मुझे पता नहीं कि उसकी मुखाकृति कैसी थी। ऐसे मूढ़को वह चपला निकाल बाहर न करती तो और क्या करती? अतः उसने तो मुझे दो-चार खरी-खोटी सुनाकर चलता किया। मैं उस समय तो यह न समझ सका कि मुझे ईश्वरने बचाया है। मैं खिन्न होकर वहाँसे चला आया। मैं शर्मिन्दा हुआ और अपनी मूढ़तापर दुःखी भी हुआ। मुझे ऐसा लगा मानो मुझमें पौरुष ही नहीं है। मैं पीछे यह समझ सका कि मेरी मूढ़ता ही मेरी ढाल थी। ईश्वरने मुझे मूढ़ बनाकर उबार लिया, नहीं तो मैं बुरा काम करने- के विचारसे इस पापके आवास में जाकर पतित होनेसे कैसे बच सकता था?

दूसरा प्रसंग इससे भी भयंकर था। इस बार मेरा मन जैसा विकाररहित पहले अवसरपर था वैसा विकाररहित न था, हालाँकि मैं जागरूक अधिक था। फिर मेरी पूज्य माताजीके सामने की हुई प्रतिज्ञाकी ढाल भी मेरे पास थी। परन्तु मैं इस अवसर- पर इंग्लैंडमें था। तब मैं पूर्ण युवक था। हम दो मित्र एक ही घरमें रहते थे और कुछ दिनोंके लिए ही उस शहरमें गये थे। मकान-मालिकिन वेश्या-जैसी ही थी। हम दोनों उसके साथ ताश खेलने बैठे। मैं उन दिनों विशेष प्रसंग आनेपर ताश खेल लेता था। इंग्लैंड में मां-बेटा भी निर्दोष-भावसे ताश खेल सकते हैं और खेलते हैं। उस समय भी हम इसी तरह ताश खेलने बैठे थे। आरम्भ तो बिलकुल निर्दोष

१. देखिए आत्मकथा, भाग १, अध्याय ७ ।

२. देखिए आत्मकथा, भाग १, अध्याय २१ ।