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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ध्वनि न गुंजारता होता; आज अपनेको करोड़ों स्त्रियोंके दर्शन करके पावन होनेका अधिकारी न मानता होता और मेरे आसपास लाखों स्त्रियाँ आज उस प्रकार निःशंक न बैठती होतीं, मानो वे एक बालकके आसपास बैठी हों। मैं उनसे दूर भागता होता और वे भी मुझसे दूर भागती होती और यह उचित भी था। मैं अपनी जिंदगीका सबसे अधिक भयंकर समय इस प्रसंगको मानता हूँ। मैंने असंयमकी ओर जाते हुए संयम सीखा। मुझे रामसे विमुख जाते हुए रामके दर्शन हुए। कैसा चमत्कार है यह !

रघुवर तुमको मेरी लाज!
हों तो पतित पुरातन कहिए
पार उतारो जहाज!

तीसरा प्रसंग हास्यजनक है। एक यात्रामें एक जहाजके कप्तानके साथ मेरा अच्छा मेल-जोल हो गया और एक अंग्रेज यात्रीके साथ भी। जहाँ-जहाँ जहाज लंगर डालता रहा वहाँ-वहाँ कप्तान और कुछ यात्री वेश्यालय खोजते। कप्तानने मुझे अपने साथ बन्दरगाह देखनेके लिए चलनेका न्योता दिया। मैं उसका अर्थ नहीं सम- झता था। हम एक वेश्याके घरके सामने जाकर खड़े हो गये। तब मैने समझा कि बन्दरगाह देखनेके लिए जानेका अर्थ क्या है। हमारे सामने तीन स्त्रियाँ खड़ी कर दी गईं। मैं तो स्तब्ध ही रह गया। शर्मके मारे न कुछ बोल सका और न वहाँसे भाग सका। मुझे स्त्री-संगकी इच्छा तो जरा भी न थी। वे दो तो कमरोंमें दाखिल हो गये। तीसरी स्त्री मुझे अपने कमरेमें ले गई। मैं विचार कर ही रहा था कि क्या करूँ; इतने में वे दोनों बाहर आ गये। मैं नहीं कह सकता उस स्त्रीने मेरे सम्बन्धमें क्या ख्याल किया होगा। वह मेरे सामने मुसकरा रही थी। मेरे मनपर उसका कुछ असर न हुआ। हम दोनोंकी भाषाएँ भिन्न थीं। सो उससे बातचीत करनेकी तो गुंजाइश थी ही नहीं। जब उन मित्रोंने मुझे पुकारा तो मैं बाहर निकल आया। मैं कुछ शरमाया तो जरूर। उन्होंने अब मुझे इस सम्बन्धमें मूर्ख मान लिया। उन्होंने आपसमें मेरी खिल्ली भी उड़ाई। उन्हें मुझपर तरस तो आया ही। मैं उसी दिनसे कप्तानकी निगाहमें दुनियाके मूोंमें गिना जाने लगा। उसने मुझे फिर कभी बन्दरगाह देखनेके लिए चलनेका न्योता नहीं दिया। यदि मैं अधिक समय वहाँ रहता अथवा उस स्त्रीकी भाषा जानता होता तो मैं नहीं कह सकता, मेरी क्या हालत होती। पर मैंने इतना तो समझ लिया कि मैं उस दिन भी अपने पुरुषार्थके बलसे नहीं बचा था, बल्कि ईश्वरने ही मुझे इस सम्बन्धमें मूढ़ रखकर बचाया था।

उस भाषणके समय मेरे मनमें ये तीन ही प्रसंग थे। पाठक यह न समझें कि मेरे सम्मुख ऐसे और प्रसंग नहीं आये थे; किन्तु मैं यह जरूर कहना चाहता हूँ कि मैं हर अवसरपर रामनामके बलपर बचा हूँ। ईश्वर खाली हाथ जानेवाले निर्बलको ही बल देता है।

१.देखिए आत्मकथा, भाग २, अ०६।