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६०. सर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी

सर सुरेन्द्रनाथ बनर्जीका नाम कौन नहीं जानता? एक समय था जब वे बंगाल- के सिंह माने जाते थे। उन दिनों वे कांग्रेसके महान् नेताओं में से एक थे। नवबंगाल उनकी पूजा करता था। उनका सिंहनाद सुननेके लिए हजारों युवक उत्कण्ठित रहते थे। जब सुरेन्द्रनाथ बोलने के लिए खड़े होते थे तब लोग उनके भाषण सुनते-सुनते थकते ही नहीं थे। सन् १८९५में जब पूनामें कांग्रेसका अधिवेशन हुआ था, तब सर सुरेन्द्रनाथ उसके अध्यक्ष थे। उनका पूरा भाषण अठवरक आकारके अस्सी पृष्ठोंकी पुस्तिकामें आया था। उन्होंने यह भाषण लिखकर तैयार किया था; किन्तु पूरा भाषण मौखिक ही दिया था और फिर भी छपे भाषण और मौखिक भाषणमें एक शब्दका भी अन्तर नहीं था। केवल कुछ आँकड़े पढ़नेके लिए उन्होंने अपना कागज उठाया था। भाषण देने में उन्हें तीन घंटे लगे थे। कहा जाता है कि लोगोंने तीन घंटेका यह भाषण ध्यानपूर्वक सुना था।

अब जमाना बदल गया है। आज तो लोग अच्छेसे-अच्छे वक्ताको एक घंटा भी देनेके लिए तैयार नहीं है। शानदार भाषणोंका मोह अब बहुत-कुछ चला गया लगता है।

किन्तु केवल उनकी चमत्कारी स्मरणशक्ति अथवा ऊँची वक्तृत्व कला ही सर सुरेन्द्रनाथके गुण न थे। उन्होंने सरकारसे जमकर लोहा भी लिया और वे जेल भी गये। वे उच्च कोटिके शिक्षक भी रह चुके हैं। उनकी सेवाएँ बहुमूल्य थीं। आज हम उनका उतना मूल्य नहीं मानते, इसमें दोष हमारा ही है। उन्होंने अपने समयमें जो काम किया, उसे कोई दूसरा शायद ही कर सकता था। समय बदल जानेके कारण पिछले जमानेके लोगोंके गुणोंको भूल जाना कृतघ्नता है। उन लोगोंकी सेवाका माप उस समयके मापदण्डसे ही करना चाहिए। यदि हम उनके लिए आजका माप- दण्ड काममें लेते हैं तो हम उनके और अपने, दोनोंके साथ अन्याय करते हैं। अपने साथ अन्याय इसलिए कि यदि हम अपनी अतीतको पूँजीको भुला देंगे तो उस हद तक हमें हानि सहनी पड़ेगी। सर सुरेन्द्रनाथके और मेरे विचारोंमें बहुत कम साम्य है, फिर भी मेरे मनमें उनके प्रति जितना आदरभाव पहले था उतना ही आज भी है। उन्होंने देशकी जो सेवा की है, मैं तो उसे कदापि नहीं भूल सकता। इसलिए मैंने जब उनकी बीमारीकी खबर सुनी तो मैं उनके बंगलेपर उनके दर्शनार्थ गया। मैंने उनका बंगला पहले कभी नहीं देखा था। वे कलकत्तेके एक शान्त उपनगर बैरक- पुरमें रहते हैं। उनका बंगला एक बड़ी जमीनमें सुन्दर उद्यानके बीचमें है। उसके सामने गंगा बहती है। एकान्तमें होनेसे बंगले में बहुत शान्ति है।

मेरा खयाल था कि वे मुझे चारपाईपर पड़े मिलेंगे, किन्तु वे तो पुस्तकोंसे लदो एक मेजके पास कुर्सीपर बैठे हुए थे। वे मुझे देखकर खड़े हो गये और बहुत

१. ६ मई, १९२५ को।