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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
महलसे झोंपड़ीमें

मैं जहाँ भी जाता हूँ वहाँ गरीब तो मेरे साथ होते ही हैं। मैं जहाँ भी जाऊँ वे मुझे ढूंढ़ निकालते हैं। मेरे बैरकपुर जाने की खबर उनको किसीने नहीं दी थी। वहाँ आसपास मजदूरवर्गके लोगोंकी बस्ती है, यह मुझे मालूम न था। किन्तु मुझे सर सुरेन्द्रनाथके बंगलेपर पहुँचे थोड़ी ही देर हुई होगी कि उनके बगीचे में आस- पाससे सौ-दो सौ गरीब लोग दौड़ कर आ गये। पता नहीं, क्षण-भरमें ही उनको मेरे आनेकी खबर कैसे लग गई। सामान्यतः तो ये लोग किसी बड़े आदमीके बंगले में इस प्रकार घुस आनेमें डरते हैं, संकोच करते हैं। किन्तु जहाँ मैं जाता हूँ वहाँ उनको भी घुस आनेका अधिकार है, यह मानकर वे निडर होकर भीतर चले आते हैं और उनको कोई रोकता भी नहीं है। इन गरीबोंमें एक दो बिहारी भी थे। वे मजदूरोंके मुहल्ले में पढ़ाने का काम करते थे। बैरकपुर कुछ ऊँचाईपर स्थित है। वहाँ पानीका तालाब है। उसमें गंगाका पानी भर दिया जाता है और साफ भी किया जाता है। इस काममें वहाँ सैकड़ों मजदूर लगे हुए हैं। ये मजदूर बिहार और संयुक्त प्रान्तके जिलोंके हैं। एक बिहारी अध्यापकने मुझे अपने घर चलनेके लिए निमन्त्रित किया और कहा कि वहाँ चल कर मैं उनका कताईका काम और खादी भण्डार देखू। वे लोग ६ चरखोंपर काम करते हैं और बिहारसे खादी मँगाकर मजदूरोंको बेचते हैं। इस निमन्त्रणका तिरस्कार अथवा इनकार भला कैसे किया जा सकता था? हम वहाँ गये। मजदूर लोग हमारे इर्दगिर्द इकट्ठे हो गये। उस छोटेसे घरमें चरखे तो अवश्य थे। दूसरी ओर एक बेंचपर तीन या चार सौ रुपयेकी खादी सुन्दर ढंगसे सजी हुई रखी थी।

उसने कहा : 'इन चरखोंको मैं, मेरा भाई और कुछ मित्र चलाते हैं। हम पूनियाँ कलकत्तेसे ले आते हैं। हम इस खादीको कोई नफा लिये बिना मजदूरोंमें बेचते हैं। हम चार या पाँच लोग तो केवल खादी ही पहनते हैं। इसके खर्चके लिए पैसा चाहिए इसलिए मजदूर लोग मुझे अपनी कमाईमें से रुपये पीछे एक पैसा देते हैं। मैं उसमें से अपने लिए कुछ नहीं रखता। किन्तु खादीपर जो अधिक खर्च होता है, वह उसीसे निकलता है।' मैंने पूछा, 'आप बंगालमें बनी खादीका व्यवहार क्यों नहीं करते?' उन्होंने उत्तर दिया, 'हमें बिहारकी खादी बेचनी चाहिए, हम यहाँ बैठे जितनी सहायता कर सकते हैं, उतनी करते हैं।' इस प्रकार ये युवक गरीब मज- दूरोंमें सालमें लगभग २,५०० रुपयेकी खादी बेचते हैं। इस प्रकार चुपचाप प्रसिद्धि- की आशा या इच्छा किये बिना न मालूम कितने गरीब और निःस्वार्थी युवक खादी- का प्रचार कर रहे होंगे। इसकी गिनती कौन कर सकता है ? सर सुरेन्द्रनाथ भी खादी या चरखेकी प्रवृत्तिसे सहमत हुए बिना नहीं रह सके। इस गरीब युवकने मुझे अपनी कुटियासे बिदा करनेके पूर्व अपना बहीखाता दिखाया जिसमें इस खादीके क्रय- विक्रयका पूरा हिसाब सुन्दर अक्षरोंमें लिखा हुआ था।

[गुजरातीसे]

नवजीवन, १७-५-१९२५