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सदस्य तो इस बारेमें सहज ही सावधानी रख सकते थे। परन्तु लगता है कि उन्होंने इसकी चिन्ता ही नहीं की। फलतः या तो ऐसे सूतकी बुनाई बन्द करनी पड़ेगी या उसे किसी मामूली काममें लेना पड़ेगा।

अब कर्त्तव्य क्या है?

अब तो कताई सदस्यतामें शामिल हो गई है। इससे कातनेवालोंकी संख्या तो बढ़नी चाहिए। इसलिए पूर्वोक्त बात हर कातनेवालेको समझ लेनी चाहिए। हरएक कातनेवाला इन दो बातोंको याद रखे:

१. सूत बटदार और एक-सा काता जाये।

२. सूत चार-फुट अटेरनपर अटेरा जाये और उसमें हर १०० गजपर बन्द लगाया जाये।

दो बातें न हों तो वह सूत, सूत माने जाने लायक नहीं है। अधिक सावधान कातनेवाले रुई देखकर उसकी किस्मको पहचान लें, उसे भली-भाँति धुनें या धुनवाएँ और उससे जितने अंकका सूत निकल सके उतने अंकका सूत कातें तथा हर वक्त सूतपर अटेरनेसे पहले पानीके छींटे दें। इतना करनेपर कहना चाहिए कि उसने अपने प्रति तथा देशके प्रति अपना कर्तव्य निभाया है। कह सकते हैं कि ऐसा व्यक्ति रुईसे जितना ले सकता है उतना लेता है और सूतके अर्थशास्त्रको समझता है। यदि हम आम तौरपर २० अंकका सूत कातने लगें तो खादी बहुत सस्ती हो सकती है और स्त्रियाँ उसका जो विरोध करती है वह विरोध बन्द हो सकता है।

मताधिकारी अपने धर्मको समझ लें तो हमें अच्छेसे-अच्छा सूत रुईके दामों मिल सकता है। यदि हम इतना कर सकें तो खादी-सम्बन्धी तमाम कठिनाइयाँ अपने-आप दूर हो जायेंगी। मताधिकारियोंका प्रामाणिक परिश्रम खादीकी रक्षा है, सहायता है, राज्याश्रय है।

क्या मताधिकारी——कातनेवाले भाई और बहन——मेरी इस प्रार्थनापर ध्यान देंगे?

अकालमें मदद

अकालके समयमें चरखा क्या काम कर सकता है इसकी एक मिसाल पंजाबसे इस तरह मिली हैः[१]

मैंने यह अंश अ॰ भा॰ खादी बोर्डको मिली रिपोर्टसे लिया है। उसके सम्बन्धमें जानने योग्य बात तो यह है कि जहाँ पहले लोगोंको अनाज दिया जाता था वहाँ अब उनसे काम लेकर उन्हें पैसे दिये जाते हैं। हम यह भी देखते हैं कि काम कराके पैसे देनसे काम करनेवालेको काम सीखना पड़ता है। यदि व्यवस्थापक सूतकी किस्मके विषयमें सावधान रहें तो जो बिना सूतकी किस्म देखे सबको एक ही दरसे दाम दे दिये जाते हैं, वे न दिये जायें, संस्थाका जो पैसा नाहक खर्च होता है, वह न हो और गरीबोंके साथ जो अन्याय अभी होता है, वह न होने पाये।

  1. यहाँ नहीं दिया गया है।