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६३. भाषण : ढाकाको सार्वजनिक सभामें[१]

१७ मई, १९२५

मित्रो,

मेरा आम नियम है कि मैं अभिनन्दन-पत्रोंका उत्तर हिन्दुस्तानीमें ही देता हूँ। पर इस नियमको मैं मुख्यतः जिला बोर्डका अभिनन्दन-पत्र पढ़नेवाले उन सज्जनके खयालसे तोड़ रहा हूँ,[२] जो अभिनन्दन-पत्र पढ़नेके बजाय उसे जबानी ही जैसाका तैसा सुना गये। इससे मुझे सर सुरेन्द्रनाथ बनर्जीके उन दिनों पूनामें दिये गये एक भाषणकी याद आ जाती है जब उन्हें नाइटका खिताब नहीं दिया गया था। मैं तो तब किशोर ही था; किन्तु वहाँ उपस्थित लोगोंने मुझे बताया कि उन्होंने अठवरक आकारके लगभग ८० पृष्ठोंका अपना वह भाषण, एक भी शब्द इधर-उधर किये बिना, मुँहजबानी सुनाया था। इससे मुझे बाबू अम्बिकाचरण मजूमदारकी भी याद आ जाती है, जिनका भाषण सुननेका सुअवसर मुझे लखनऊमें मिला था। उन्होंने अपना भाषण जबानी सुनाना शुरू किया और डेढ़ पृष्ठतक तो वे एक भी अक्षर इधर-उधर किये बिना सुनाते चले गये। और अगर उन्हें मित्रोंने समाप्त करनेका संकेत न किया होता तो बड़े-बड़े ३० पृष्ठोंके उस भाषणका सुनना शायद लखनऊके लोगोंको गराँ गुजरता और वे उसे सुनाते चले जानेके लिए न कहते।

मुझे पता नहीं कि उसका शेष भाग किसने सुनाया था। बंगाल आनेपर मैंने खुद भेंट किये गये अभिनन्दन-पत्रोंके सम्बन्धमें अधिकांशतः ऐसा ही देखा।

मुझे आपसे या स्वयं अपनेसे मनकी तीव्र वेदना या उत्कण्ठाको छिपाना नहीं चाहिए। मुझे बंगाल आनेपर बंगला भाषाकी सुन्दर ध्वनि सुननेको मिलती रही है। इसलिए चाहे कितना ही शानदार क्यों न हो, अंग्रेजीके धाराप्रवाह भाषणसे मेरी रक्षा करें। यदि आप हिन्दुस्तानीमें अपनी बात न कह सकें तो शुद्ध बंगलामें ही कहें। शायद बंगाल सारे भारतको एक यही सन्देश देना चाहता है। मेरा खयाल है कि अब बहुत आवश्यक हो गया है कि हम अपनी कार्यवाहियाँ, विशेषकर ऐसी कार्यवाहियाँ, प्रान्तीय भाषाओं या हिन्दुस्तानीमें ही चलायें। एक समय ऐसा आयेगा जब हम सब अंग्रेजी भाषाका प्रयोग करनेमें शर्म मानेंगे। मेरा खयाल है कि यह बात मैं पहले भी कह चुका हूँ। आपके अभिनन्दन पत्रोंमें व्यक्त उद्गारोंके लिए आपको धन्यवाद देना मेरा कर्त्तव्य है। लेकिन मैं उन सुन्दर मंजूषाओंके लिए आपको धन्यवाद नहीं देता जिनमें रखकर मुझे अभिनन्दन-पत्र दिये गये हैं। मेरे पास कोई सम्पत्ति नहीं है और न ऐसी चीजोंका मेरे लिए कोई उपयोग ही है। महत्त्वपूर्ण तो उसमें

  1. यह भाषण जिला बोर्ड, नगरपालिका और पीपुल्स एसोसिएशनकी ओरसे भेंट किये गये अभिनन्दन-पत्रोंके उत्तरमें दिया गया था।
  2. यह वाक्य हिन्दू, १८-५-१९२५ की रिपोर्टपर आधारित है।