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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अब मैं उनके सवालोंको क्रमशः लेता हूँ:

अहिंसा क्या है? चितकी एक वृत्ति है या प्राणका नाश न करना है? यदि वह प्राणका नाश न करना हो तो क्या उसका पालन सम्भव है? क्या हम इसके तर्कसम्मत छोरतक जाकर इसका पालन कर सकेंगे? हम अपने भोजन इत्यादिमें रोज असंख्य जीवोंकी हिंसा करते हैं। उस अवस्थामें तो हम वनस्पतियोंतक को खा नहीं सकते।

अहिंसा चित्तकी एक वृत्ति भी है और तज्जनित चेष्टा भी। इसमें सन्देह नहीं कि वनस्पतिमें भी प्राण है; परन्तु वनस्पतिका उपयोग किये बिना हम रह नहीं सकते। वह जीव-नाशसे कम तो किसी तरह नहीं है। अलबत्ता, वह क्षम्य माना जा सकता है।

दूसरा प्रश्न है:

यदि हम जीव-हिंसासे बच नहीं सकते तो इसके यह मानी नहीं है कि हम बिना आगा-पीछा सोचे उसका विनाश करते ही रहें। फिर भी उस हालतमें, सचमुच जरूरी होनेपर उसके सम्बन्धमें सिद्धान्तको दृष्टिसे आपत्ति नहीं की जा सकती। कार्य-साधकताको दृष्टिसे भले ही की जा सके।

ऐसे अवसरोंपर भी जहाँ हिंसा की आवश्यकता सिद्ध होती हो, 'सिद्धान्तकी दृष्टिसे' हिंसाका समर्थन नहीं किया जा सकता। उसका बचाव केवल कार्य-साधकताकी दृष्टिसे ही किया जा सकता है।

तीसरा प्रश्न है:

यदि अहिंसाका अर्थ है प्राणका नाश न करना, तो फिर आप किसी व्यक्तिको किसी कार्यके निमित्त अपना प्राण देनेके लिए किस तरह कह सकते हैं——चाहे वह काम कितना ही पवित्र और धार्मिक क्यों न हो? क्या वह स्वयं अपने प्रति हिंसा न होगी?

हाँ, मैं किसी आदमीसे बराबर यह कह सकता हूँ कि अमुक कामके लिए अपनी जान दे दो, तिसपर भी मैं हिंसाका दोषी न होऊँगा, क्योंकि अहिंसाका अर्थ है———औरोंको चोट न पहुँचाना।

चौथा प्रश्न यह है :

अपने प्राणसे प्यार करना मनुष्यका स्वभाव है। जबकि किसी व्यक्तिका अपने देश या समाजको आवश्यकताके लिए अपनी जान दे देना उचित है तो आवश्यकता पड़नपर वह औरोंको जान कुरबान क्यों नहीं कर सकता? हमें सिर्फ इतना ही साबित करना होगा कि उसकी जरूरत थी; अर्थात् यह भी कार्य-साधकताका ही सवाल ठहरा।

'जो अपनी जानसे मुहब्बत करेगा वह उसे खोयेगा। जो अपनी जानको गँवायेगा वह उसे पायेगा।' आवश्यकताको बिनापर दूसरेको जानको कुरबान करनेका समर्थन