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कूदनेको तत्पर

आधारपर ही उचित ठहराता हूँ। मैं कहता हूँ कि क्रान्तिकारियोंके तरीके भारतवर्षमें सफल नहीं हो सकते। यदि खुल्लमखुल्ला लड़ाई मुमकिन हो तो मैं शायद मान सकूँ कि हम हिंसाका पथ ग्रहण करें, जैसा कि दूसरे देशोंने किया है और कमसे-कम उन गुणोंको ही प्राप्त करें जो रणक्षेत्रमें वीरता दिखानेसे उदय होते हैं। पर युद्धके द्वारा भारतके स्वराज्यको प्राप्तिको हम, जहाँतक नजर पहुँचती है, किसी समय भी असम्भव ही मानते हैं। युद्धके द्वारा हमें चाहे अंग्रेजी शासनतन्त्रकी जगह दूसरा तन्त्र मिल जाये परन्तु वह जनताका स्वराज्य न होगा। स्वराज्यकी तीर्थ-यात्रा परम दुर्गम, महान् कष्टप्रद चढ़ाई है। उसके लिए छोटीसे छोटी तफसीलपर गौर करना होगा। उसके लिए बहुत बड़ी संगठनसम्बन्धी योग्यताकी जरूरत है। उसके मानी है, देहातियोंकी सेवा करनेके ही उद्देश्यसे देहातमें प्रवेश करना——दूसरे शब्दोंमें इसका अर्थ है राष्ट्रीय शिक्षा——जनताकी शिक्षा। इसका अर्थ है जनताके अन्दर राष्ट्रीय चेतना और जागृति उत्पन्न करना। यह स्थिति किसी जादूगरके आमके पेड़की तरह अचानक नहीं उत्पन्न हो जायेगी। वह तो वट वृक्षकी तरह बहुत ही धीरे-धीरे, यहाँतक कि उसका बढ़ना शायद दीख ही न पड़े, बढ़ेगी। यह करिश्मा खूनी क्रान्तिके द्वारा सम्भव नहीं। इस मामले में जल्दीसे काम लेना निस्सन्देह कामको बिगाड़ना है। चरखेकी क्रान्ति ही, जहाँतक कल्पना दौड़ती है, द्रुततम क्रान्ति है।

दसवाँ और अन्तिम प्रश्न इस प्रकार है:

जब जीवनके परम स्वार्थका सवाल उपस्थित होता है तब क्या तर्क और युक्तिको ताकपर नहीं रख दिया जाता? क्या हकीकत यह नहीं है कि थोड़ेसे स्वार्थी, आततायी और हठो लोग तर्क और युक्तिको बात नहीं सुनते और एक जनसमाजपर हुकूमत करते हैं, उसपर जुल्म ढाते हैं और उसके साथ अन्याय करते रहते हैं? पाण्डवों तथा आग्रही कौरवोंमें शान्तिपूर्वक मेल करानेमें भगवान श्री कृष्ण भी सफल न हो सके। महाभारत चाहे कोई ऐतिहासिक घटना न हो। कृष्ण चाहे आध्यात्मिकतामें इतना ज्यादा बढ़े-चढ़े न हों, पर खुद आप भी तो अपने उस न्यायाधीशको इस्तीफा देने और सजाका हुक्म न सुनानेके लिए राजी नहीं कर सके, हालाँकि औरोंकी तरह वह भो आपको निरपराध मानता था। ऐसी बातोंमें कोई आत्म-त्यागके द्वारा समझानेसे कहाँतक सफल हो सकता है?

यह बात दुःखपूर्ण, पर सच है कि जहाँ स्वार्थका सम्बन्ध आता है, लोग तर्क और युक्तिको ताकपर रख देते है। निरंकुश शासक निस्सन्देह बड़े दुराग्रही होते हैं। अंग्रेज निरंकुश शासकको तो दुराग्रहका अवतार ही समझिए। पर वह सहस्रमुखी दानव है। वह दुर्दमनीय और अवध्य है। उसे उसीके शस्त्रोंसे नहीं मारा जा सकता; क्योंकि हमारे पास उसने ऐसा कोई शस्त्र रहने ही नहीं दिया है। मेरे पास एक ऐसा अस्त्र है, जो उसके शस्त्रागारमें ढाला नहीं जाता और जिसे वह चुरा भी नहीं सकता। उसने अबतक जितने शस्त्रास्त्र बनाये हैं वह अस्त्र उनसे बढ़कर है। वह क्या है? वह है अहिंसा। और चरखा उसका प्रतीक है। इसीलिए मैंने उसे देशके सम्मुख पूरे विश्वासके साथ प्रस्तुत किया है। कृष्ण जो-कुछ करना चाहते थे