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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उसमेऺ, महाभारतकार कहते हैं, वे असफल हुए ही नहीं। वे सर्वशक्तिमान थे। उन्हें उनके उच्च पदसे उतारकर यहाँ घसीटना व्यर्थ है। पर यदि उनके विषयमें हम उन्हें निरा मर्त्य मनुष्य समझकर विचार करें तो उनका पलड़ा हल्का पड़ जायेगा और उन्हें पीछेकी तरफ आसन मिलेगा। 'महाभारत' न तो काल्पनिक है और न जैसा लोगोंका खयाल है इतिहास ही है। वह मानवआत्माका इतिहास है, जिसमें ईश्वर कृष्णके रूपमें मुख्य पात्र——नायक——है। उस महाकाव्यमें ऐसी कितनी ही बातें हैं जो मेरी अल्पबुद्धिसे परे है। उसमें कितनी बातें एसी हैं जो स्पष्टतः क्षेपक हैं। वह रत्नोंका खजाना नहीं है। वह तो एक खान है, जिसके खोदनेकी जरूरत है, जिसमें गहरे पैठनेकी जरूरत है। उसके बाद ही कंकड़-पत्थर निकालकर अलग कर देनेपर हीरे हाथ आयेंगे। इसलिए जो क्रान्तिका संकल्प ले चुके हैं या लेने जा रहे हैं अथवा उसकी धारामें कूदनेको तत्पर हैं; मैं उन मित्रोंसे आग्रह करता हूँ कि वे अपने पैर धरतीपर ही जमाये रखें और हिमालयके शिखरोंपर उड़ानें न भरें, जहाँ कि 'महाभारत' के कवि अर्जुन तथा दूसरे वीरोंको ले गये थे। मैं तो हर हालतमें उसपर चढ़नेकी कोशिश करने से भी इनकार करूँगा। मेरे लिए भारतवर्षका मैदान ही काफी है।

अच्छा तो अब मैदानमें उतरकर, प्रश्नकर्ता इस बातको समझ लें कि मैं अदालत इसलिए नहीं गया था कि न्यायाधीशको समझाऊँ कि मैं निरपराध हूँ; बल्कि मैं गया था अपनेको पूरा अपराधी कुबूल करने और ज्यादासे-ज्यादा सजा माँगने के लिए, क्योंकि मैंने तो मनुष्य-कृत कानूनको जानबूझ कर तोड़ा था। न्यायाधीश मुझे निरपराध नहीं मान सकता था, उसने मुझे वैसा माना भी नहीं। जेल जानेमें कोई बड़ी कुर्बानी नहीं थी। सच्ची कुर्बानी इससे कहीं कठिन होती है। यह सज्जन अहिंसाके फलितार्थको समझ लें। यह मतपरिवर्तन करानेकी एक विधि है। मुझे इस बातका यकीन हो चुका। और यह कहनेके लिए क्षमा किया जाऊँ कि मेरी दृढ़ और अविचल अहिंसाकी भावनाने जितने ज्यादा अंग्रेजोंको अपने विचारका कायल किया है, उतने अंग्रेजोंको मार डालनेकी सैकड़ों धमकियाँ और मार डालनेकी घटनाएँ कायल नहीं कर पाई हैं। मैं कहता हूँ कि जिस दिन भारतमें आम तौरपर विवेकशील अहिंसाका पालन होने लगेगा, स्वराज्य हमसे दूर नहीं रह जायेगा।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २१-५-१९२५