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टिप्पणियाँ

स्पर्श न करना मूलतः कोई धार्मिक प्रश्न है। वे ऐसा सोच भी नहीं सकते कि वे उन लोगोंको भी छू सकते हैं, जिन्होंने उन्हें अबतक अछूत माना है। अधिकांशत: अछूत उन लोगोंकी अनुमति होनेपर भी डरके कारण स्पर्श नहीं करते। यह मामला उस फ्रांसीसी कैदीके समान है जो कि वर्षोंतक बैसिलके कारागारमें कैद रहनेके बाद छूटनेपर सूर्यके प्रकाशको बर्दाश्त नहीं कर पाया था। वह अपनी देखनेकी शक्ति लगभग खो बैठा था। लेकिन मैंने बंगालमें दिये गये एक सुझावकी बात सुनी थी। वहाँ कथित अछूतोंको यह सुझाव दिया था कि उन्हें प्रतिशोधस्वरूप कथित उच्च जातीय हिन्दुओंको अछूत समझना चाहिए और उनकी सभी सेवाएँ जो वे अब कर रहे हैं बन्द कर देनी चाहिए तथा उनसे खाना और पानी लेनेसे भी इनकार कर देना चाहिए। मुझे उस दिन बहुत खेद होगा जिस दिन इस प्रकारका प्रतिशोध लिया जायेगा; लेकिन स्वतंत्रता तथा मनमानीके इस युगमें, जो आज केवल चर्चाका विषय है, वह कार्यमें परिणत कर दिया और कथित उच्च जातियोंके लोग, जिनके भाग्यमें यह बदा है, दण्डके भागी बनें तो कोई आश्चर्यकी बात न होगी। प्रकृति अन्ततक हमें सुधरनेका मौका देती है तथा यदि हम उसका लाभ नहीं उठाते हैं तो अन्तमें वह हमें आज्ञा माननेके लिए बाधित कर देती है और उसके साथ सजा भी देती है। यह सजा हमें कमसे-कम परेशान तो करती ही है।

एक पत्र-लेखककी दुविधा[१]

यह है पत्र-लेखककी समस्या। मुझे पता नहीं कि मैंने जनताके सामने संन्यासीका आदर्श रखा है। मैंने तो भारतके सामने लगातार स्वराज्यका आदर्श रखा है। हाँ, ऐसा करते हुए मैंने सादगीका उपदेश जरूर दिया है। मैंने सदाचारका भी उपदेश किया है। परन्तु सदाचार, सादगी और ऐसे गुण अकेले संन्यासियोंकी सम्पत्ति या विशिष्ट अधिकार तो नहीं हैं। साथ ही मैं यह भी कदापि नहीं मानता कि संन्यासी एकान्तवासी हो और दुनियाकी कुछ भी फिक्र न करे। बल्कि संन्यासी तो वह है जो अपनी चिन्ता न कर, चौबीसों घंटे औरोंकी फिक्र करे। वह पूर्णतया स्वार्थ भावसे मुक्त होकर भी निःस्वार्थ कामोंमें लगा रहे, जिस तरह ईश्वर अविराम निःस्वार्थ सेवामें लगा रहता है। इसलिए एक संन्यासी तभी सच्चा त्यागी कहा जायेगा जब वह स्वराज्य अपने लिए नहीं (क्योंकि उसे तो वह प्राप्त ही है), बल्कि औरोंके लिए प्राप्त करनेकी चिन्ता करे। उसे अपने लिए दुनियामें किसी वस्तुको आकांक्षा नहीं रहती। पर इसके यह मानी नहीं है कि वह औरोंको दुनियामें अपना स्वत्व पहचानने और प्राप्त करने में मदद न दे। यदि प्राचीन कालके संन्यासी समाजके राजनीतिक जीवनकी कोई चिन्ता नहीं करते थे तो उसका कारण यह है कि उस कालकी समाज-रचना भिन्न प्रकारकी थी, पर आज तो राजनीति जीवनके प्रत्येक अंगको प्रभावित करती है। हम चाहें या न चाहें, सैकड़ों

  1. पत्र यहाँ उद्धृत नहीं किया जा रहा है। लेखकने लिखा था: 'मैं आपके लेख और भाषण ध्यानसे पढ़ता हूँ। मुझे उनमें भारी विसंगति दिखाई देती है। एक ओर आप मनुष्यके सामने संन्यासीका आदर्श रखते हैं और दूसरी ओर स्वराज्यके लिए प्रयत्नशील हैं जिसकी जरूरत संन्यासीको नहीं। आप इन दोनों विचारोंमें संगति कैसे बैठाते है?'