इसके बाद महात्माजीको बताया गया कि कट्टर हिन्दू इस बातको ठीक नहीं जानते कि आप अपना अस्पृश्यताका सिद्धान्त कहाँतक ले जाना चाहते हैं। जैसी सीधी-सादी और नपी-तुली भाषामें बोलना उनकी खूबी है, वैसी ही भाषामें उन्होंने कहा:
मैं इसे एक शब्दमें समझाऊँगा। हिन्दुओंमें चार वर्ण हैं। मैं पाँचवाँ कोई वर्ण नहीं मानता। मेरा यह विश्वास शास्त्रोंके अध्ययनपर आधारित है। तथाकथित अस्पृश्योंके साथ शूद्रों-जैसा बरताव होना चाहिए, उससे घटकर नहीं। जिन लोगोंको शूद्रोंके साथ परस्पर खानपानमें कोई आपत्ति नहीं है, उन्हें अछूतोंसे वैसा ही बरताव करनेमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। लेकिन जो लोग शूद्रोंके साथ नहीं खाते, निश्चय ही उनका अछुतोंके साथ खानपान भी जरूरी नहीं है।
किसीने इस बातपर तुःख प्रकट किया कि १९२०-२१ में जैसी हिन्दू-मुस्लिम एकता थी, वह इधर हालमें कम होती जा रही है। महात्माजीने दुःखके साथ जवाब दिया:
यह एकता, एकता कहने योग्य नहीं थी। यह तो एकताकी दिशामें प्रयत्न-भर था। क्या विश्वकी कोई ताकत मुझसे मेरी पत्नीको अलग कर सकती है? जब दोमें सच्ची अभिन्न-हृदय एकता होगी तो किसी भी तीसरे पक्षकी ओरसे दिया गया कोई भी प्रलोभन या झाँसा उसे अविच्छिन्न नहीं कर सकता।
अमृतबाजार पत्रिका, २३-५-१९२५
७९. भाषण : कार्यकर्ताओंके स्कूल, बोगूड़ामें[१]
२२ मई, १९२५
मैं आप लोगोंसे चरखेके सम्बन्धमें कुछ नहीं कहूँगा। आप जानते ही हैं कि इस विषयमें अन्य स्थानोंपर मैं क्या कहता रहा हूँ। अस्तु, मैं अहिंसाके बारेमें आपको कुछ बताऊँगा ताकि आपका विश्वास अहिंसामें दृढ़ हो। ढाकामें एक विद्यार्थीने मुझसे कहा कि चरखा चलानेमें जोशकी कोई गुंजाइश नहीं है, इसलिए मैं उसे चलानेकी अपेक्षा फाँसीके तख्तेपर अधिक खुशीसे चढूँगा। मुझे इसमें जरा भी सन्देह नहीं है कि उस विद्यार्थीको न तो अहिंसामें विश्वास है और न ब्रह्मचर्यमें ही। चरखा शान्ति और अहिंसाका प्रतीक है और उसीमें मेरी पूरी श्रद्धा है, क्योंकि अहिंसा मेरे लिये एक नीति नहीं है वरन् एक सिद्धान्त, एक धर्म है। मैं अहिंसाको ऐसा क्यों मानता हूँ? इसलिए कि मैं जानता हूँ कि संसार जिससे टिका है वह शक्ति हिंसा अथवा विनाशकारी कोई शक्ति नहीं है। मैं यह जरूर स्वीकार करता हूँ कि संसारमें विनाशकारी शक्ति
- ↑ महादेव देसाईके पात्रा-विवरणसे उद्धृत।