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८२. पत्र : कल्याणजी मेहताको

ज्येष्ठ सुदी १ [२३ मई, १९२५][१]

भाईश्री कल्याणजी,

आपका पत्र मिल गया। पार्वतीबहनको[२] कहें कि वह मुझे कभी-कभी पत्र लिखें। आशा है आप बारडोलीका कार्य बहुत ध्यानसे कर रहे होंगे। मेरा स्वास्थ्य अच्छा रहता है। इस पत्रके साथ चि॰ रुखीके लिए एक आशीर्वादका पत्र भेज रहा हूँ। आशा है कि विवाहकी रस्ममें सादगी बरती गई होगी और वह निर्विघ्न सम्पन्न हुई होगी। मेरे बंगालके दौरेकी अवधि थोड़ी बढ़ गई है।[३] मुझे असम भी जाना होगा।

बापूके आशीर्वाद

मूल गुजराती पत्र (जी॰ एन॰ २६७६) की फोटो-नकलसे।

८३. बंगालका त्याग

बंगालमें शुद्ध त्यागके दृष्टान्त देखकर मैं तो हर्ष-विभोर हो रहा हूँ। एक जमींदारका सारा कुटुम्ब खादीमय है। उस परिवारकी सभी स्त्रियाँ सूत कातती हैं और सभी स्त्री और पुरुष खादी पहनते हैं। उन्होंने अपनी जमीन और अपना घरखादी-प्रतिष्ठानको उपयोगके लिए दे दिये हैं। प्रतिष्ठानके प्राण सतीश बाबूका त्याग भी ऐसा-वैसा नहीं। उन्हें डॉ॰ रायके रसायनके कारखानेसे हर माह १,५०० रु॰ मिलते थे। उन्हें वहाँ रहनेके लिए बंगला भी मिला हुआ था। अधिक माँगते तो अधिक भी मिल सकता था। वे वहाँ रहते हुए भी खादीका काम तो करते ही थे। परन्तु उन्हें इतनसे सन्तोष नहीं हुआ। उनके कोमल हृदयने अनुभव किया कि इस तरह दो काम करनेसे दोनोंके बिगड़नेकी सम्भावना है। वे रसायनके कारखानेके तो प्राण ही थे। उसके लिए यदि वे पूरा समय न देते तो उसे ज़रूर धक्का लगता। इधर खादीके द्वारा गरीबोंकी सेवा होती है। यह काम फुरसतके वक्तमें किया जा सकता था, किन्तु उन्हें उचित नहीं मालूम हुआ। एक पुरुषका दो पत्नी रखना जिस तरह पाप है उसी तरह एक मनुष्यका दो कामोंको अपना प्रिय कार्य बनाना भी अनर्थकारी है। फिर खादीके लिए तो जितना त्याग किया जाये उतना ही कम है। उन्होंने अपने मनमें इस तरह तर्क करके जिस कारखानेको खुद जमाया था, उसीको एक क्षणमें छोड़ दिया और अब अपने पास जो-कुछ थोड़ी जमा पूँजी है उसकी आमदसे

  1. गांधीजीने बंगालका दौरा १९२५ में किया था, उस वर्ष ज्येष्ठ सुदी १, २३ मईको पड़ी थी।
  2. प्रागजी देसाईकी पत्नी।
  3. यह ३१ अगस्त, १९२५ तक बढ़ा दिया गया था।