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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अपना घर-खर्च चलाते और अपना सारा समय खादीके कार्यमें ही लगाते हैं। वे अपने कामकी ग्यारह शाखाएँ खोल चुके हैं। इनमें से पाँच खादी उत्पादक-केन्द्र हैं। वे अभी ऐसी शाखाएँ और भी खोलनेका इरादा कर रहे हैं। इन शाखाओंके मार्फत ५,०६० चरखोंसे सूत काता जा रहा है और ५९७ हाथकरघोंपर खादी बुनी जा रही है।

उनके इस कार्यमें उनकी धर्मपत्नी भी उनके साथ हो गई हैं। जहाँ रुपयेकी बहुतायत थी वहाँ उन्हें आज तंगीसे काम चलाना पड़ता है, यह बात इस बहनको खलती तो होगी। जहाँ रहनेके लिए अलहदा बंगला था, वहाँ उन्हें आज एक छोटी सी इमारतके एक छोटे-से हिस्सेसे सन्तोष माननेमें कठिनाई होती होगी, किन्तु ये बहन इन तमाम तकलीफोंको खुशी-खुशी सह रही हैं।

त्यागमें सतीशबाबूका उदाहरण अकेला ही नहीं है। दूसरे अनेक नवयुवक अद्भुत त्याग कर रहे है। सतीशबाबूके पास बहुत था और उन्होंने बहुत छोड़ा। फिर भी उन्हें खाने-पीनेकी सांसत नहीं उठानी होती। उन्हें सामान्यतः सोने-बैठनेकी तकलीफ नहीं है, परन्तु सौ नवयुवक ऐसे हैं जिन्हें अधिकसे-अधिक २०) मासिक गुजारेके लिए मिलते हैं। बंगालमें जीवन-यापन कितना कठिन है हमें इसका अन्दाज वहाँकी स्थितियाँ देखे बिना नहीं हो सकता। कहा जा सकता है कि बरसातके दिनोंमें तो उन्हें पानीमें ही रहना पड़ता है। उनके मकान किसी भी समय पानीमें बह जा सकते हैं। एक घरसे दूसरे घर नावमें बैठकर जाना पड़ता है। ऐसे समयमें गन्दगो की तो हद ही नहीं रहती। ये नवयुवक ऐसे कष्ट सहकर राष्ट्रकी सेवा कर रहे हैं। कुछ लोग खादीके काममें लगे हुए हैं और कुछ राष्ट्रीय शालाओंमें। तमाम राष्ट्रीय शालाओंमें चरखा तो जरूर ही चलाया जाता है।

ऐसी हालतमें जायकेदार खाना मिलना तो असम्भव ही होता है। दूध-दही भी हमेशा नहीं मिल सकता। वहाँ सामान्य भोजन दाल-भात होता है। बंगालमें बिलकुल निरामिष भोजन करनेवाले कम ही लोग होते हैं। जो मांसाहार नहीं करते वे भी मछली तो जरूर खाते हैं। इन निर्धन सेवकोंको भी जब और कुछ नहीं मिलता तब मछली तो मिल ही जाती है। मानना चाहिए कि जिसे दूध-दही न मिलता हो उसके लिए यह बहुत बड़ा सहारा है। इससे उनके त्यागकी कीमत कम नहीं होती। उनके मछली खानेकी बात मैंने इसीलिए लिखी है कि उनके कष्टोंका माप करनेमें मुझसे कहीं अत्युक्ति न हो।

ये सब नवयुवक शिक्षित हैं। उनमें से कुछ तो प्राध्यापक थे और बड़े-बड़े वेतन पाते थे। आज उन्हें अपने त्यागपर पश्चात्ताप नहीं होता। वे लोग त्यागमें सुख मानते हैं। इसके बिना ऐसा कठिन त्याग टिक भी नहीं सकता। जब मैं उनके इस त्यागका विचार करता हूँ तब मुझे गुजरातके लोगोंका त्याग नगण्य मालूम होता है। शिक्षित वर्गमें जो त्याग यहाँ देख रहा हूँ उसकी तुलना तो केवल महाराष्ट्रके लोगोंके त्यागके साथ ही की जा सकती है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २४-५-१९२५