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फिजूलखर्ची

आये हैं। मैं इस विषयके विवादमें नहीं पगा। हाँ, कुछ बातोंका स्पष्टीकरण करना उचित होगा। मैंने अपनी समझके अनुसार जैन-धर्मग्रन्थोंका अध्ययन किया है; किन्तु मैं जानता हूँ कि मुझे उन ग्रन्थोंकी व्याख्या करने का कोई अधिकार नहीं है। मैंने बातचीतमें तो केवल अहिंसा और मुनिभावकी ही व्याख्या की थी। सम्भव है कि मेरी यह व्याख्या जैन-दर्शनके अनुकूल न हो। यदि ऐसा हो तो मुझे उससे खेद ही होगा और मैं मान लूँगा कि मेरा मत जैन मतसे विरुद्ध है। किन्तु फिर भी मेरा हृदय और मस्तिष्क जिस बातको स्वीकार करते हैं उसे कहने का मुझे अधिकार होना चाहिए। हो सकता है कि इस सम्बन्धमें मुझसे भूल हुई हो। उस हालतमें उसका फल भोगना होगा। किन्तु यदि मुझसे वह भूल अज्ञानमें हुई हो तो मैं उसे अनुभव करते ही अवश्य सुधार लूँगा। मैं अहिंसा और मुनिभावको व्याख्या करता हूँ, इससे किसी जैनको या अन्य भाईको अपने मनमें दुःख नहीं मानना चाहिए। जहाँ किसीका मन दुःखी करनेका तनिक भी आशय न हो वहाँ उसे दुःख क्यों मानना चाहिए? यदि कोई हमारी व्याख्यासे सहमत न हो और हमें अपनी व्याख्याकी यथार्थताका निश्चय हो तो हम उसे मूर्ख भले ही मानें, किन्तु हमें उससे दुःखी तो अवश्य ही नहीं होना चाहिए।

इतने स्पष्टीकरणके बाद मैं नम्रतापूर्वक यह कहना चाहता हूँ कि इस समय तो मुनियोंके लिए भी लोक-कल्याणार्थ चरखा चलाना धर्म है। उन्हें जैसे लोककल्याणार्थ खाने-पीनेका अधिकार है, वैसे ही चरखा चलाना उनका कर्तव्य है। मेरी अल्पमतिके अनुसार तो यदि कोई मुनि किसी ऐसी प्रवृत्तिसे, जिससे एक भी जीवकी रक्षा होती हो, जान-बूझकर दूर रहता है तो वह मुनि नहीं कहा जा सकता।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २४-५-१९२५
 

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मेरे सामने एक लम्बा पत्र पड़ा है। उसमें वर्तमान आन्दोलनकी और उसके कार्यकर्ताओंको सम्यक् और शिष्ट आलोचना की गई है। उसमें से जानने योग्य बातें नीचे देता हूँ:[१]

पच्चीस पृष्ठोंके इस पत्रका यह सार मैंने लगभग लेखकके शब्दोंमें ही दे दिया है। लेखक विवेकशील है और उन्होंने सद्भावसे पत्र लिखा है। उनके लगाये हुए कुछ आरोपोंके बारेमें मुझे कुछ भी मालूम नहीं है। फिर भी मेरा यह अनुभव अवश्य है कि सार्वजनिक धनका बहुत अपव्यय किया जाता है। मैंने प्रसंग आनेपर

  1. पत्र यहाँ नहीं दिया गया है। पत्रलेखकने इसमें कार्यकर्ताओंकी आरामतलबी और विदेशी वस्त्रके मोहकी शिकायत की थी और गांधीजीका ध्यान इस बातकी ओर खींचा था कि वे जब-कभी आते हैं तब उनपर फिजूल खर्च किया जाता है: