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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इसकी आलोचना भी की है। मुझे कई बार मालूम हुआ है कि कार्यकर्ताओंकी सुख-सुविधाके लिए आवश्यकतासे अधिक रुपया खर्च किया गया है। अब तो इसमें बहुत कमी हो गई है, परन्तु मुझे कबूल करना चाहिए कि अभी और सुधार करना आवश्यक है। मामूली जाने-आनेमें भी गाड़ी-भाड़ेपर रुपया खर्च किया जाता है, यह बात कुछ हदतक सच है। हम तो अब सिर्फ दरिद्रोंकी सेवा करना चाहते हैं——उनके प्रतिनिधि बनना चाहते हैं। इसलिए, मेरे मनमें जरा भी शक नहीं कि हमें अपने जीवनमें और भी अधिक सादगी लानेकी जरूरत है। जहाँ पैदल जा सकते हैं वहाँ गाड़ीका उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। कार्यकर्त्ताओंको मेहमानदारीकी जरूरत नहीं होनी चाहिए। कार्यकर्त्ता दावतें खानेके लिए नहीं, सेवा करनेके लिए इकट्ठे होते हैं।

मेरी समझमें यह नहीं आया कि स्त्रियोंके संसर्गके उल्लेखसे उनका संकेत किस बातकी ओर है। सारे पत्रको पढ़नपर भी यह बात स्पष्ट नहीं हुई। परन्तु लेखककी की हुई तुलनासे कुछ अनुमान होता है। मुझे इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि संसर्गके उद्देश्यसे किया गया संसर्ग पाप है और त्याज्य है। ऐसे संसर्गको खोजमें रहनेवाले कार्यकर्ताओंसे राष्ट्रको कुछ भी सेवा नहीं होगी। परन्तु सेवाके लिए किया गया स्त्री-संसर्ग अनिवार्य है, अतः स्वीकार्य है। हमने स्त्रियोंको बहुत दबाकर रखा है। स्त्रियोंका स्त्रीत्व समाप्त हो गया है। देश-सेवाके निमित्त स्त्रीको बाहर निकलनेका अधिकार है और यह उसका धर्म है। स्त्रियाँ हमारी हलचलोंमें ज्यों-ज्यों ज्यादा हिस्सा लेती जायेंगी हम त्यों-त्यों स्त्रियों और पुरुषोंको एक ही सभा-समाजोंमें अधिकाधिक देखेंगे। मुझे यह स्थिति उचित मालूम होती है।

वह ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य नहीं और वह संयम संयम नहीं जिसका पालन वनमें रहकर ही किया जा सकता हो। कितने ही लोगोंके लिए वन-सेवन अभीष्ट है। ऐसा एकान्तवास थोड़ा-बहुत सबके लिए लाभदायक है। पर वह है विचार-वृद्धिके लिए, आत्मज्ञान प्राप्त करनेके लिए, अपने को सुरक्षित रखने के लिए कदापि नहीं। संसारके सामान्य व्यवहारोंमें रहते हुए भी जो अलिप्त रहता है, वही संयमी है, वही सुरक्षित है।

प्राचीन समयमें जो बन्धन लगाये गये थे वे उस समयके लिए भले ही अनुकूल रहे हों; परन्तु हम इस जमानेमें तो देखते हैं कि यूरोपके लोगोंमें बहुतसे स्त्री-पुरुष आपसमें बहुत आजादीसे रहते हुए भी अपने सदाचारकी और अपनी पवित्रताकी रक्षा करते हैं। यदि कोई यह मानता हो कि यूरोपमें पवित्रताकी रक्षा करना असम्भव है तो वह उसका निरा अज्ञान है। हाँ, यह सच है कि यूरोपमें हमारे लिए पवित्रताकी रक्षा करना जरूर मुश्किल है। इसका कारण यूरोपकी स्त्रियोंकी स्वतन्त्रता नहीं है, बल्कि यूरोपीय लोगोंकी, भोगको भी एक प्रकारका धर्म मान लेनेकी प्रवृत्ति है। फिर यूरोपमें जिस तरहको स्वतन्त्रता है हम उसके अभ्यस्त नहीं हैं।

यूरोपका उदाहरण हमारे लिए एक हदतक ही उपयोगी है। उसका पूरा अनुकरण भयावह है। इस दृष्टान्तके देनेका हेतु, यह बताना है कि यह विचार हर समय और हर जगहके लिए सत्य नहीं है कि स्त्रियोंसे मिलना-जुलना सर्वथा त्याज्य है और संयमीके लिए पापरूप है।