पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 27.pdf/१८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१५७
फिजूलखर्ची

हमारी सभ्यतामें जिस सुधारकी जरूरत होगी वह सुधार अपने वातावरणपर विचार करके करना पड़ेगा। एक ओर हमें स्त्री-समाजका सुधार करना है; और दूसरी ओर इस बातकी सावधानी रखनी है कि उससे संक्रान्ति कालमें अनर्थ न हो। कुछ हदतक हमें जोखिम भी उठानी पड़ेगी। मेरे पास ऐसी शिकायतें आई हैं कि एक-दो जगह ऐसा अनर्थ हो रहा है। मैं उसकी जाँच भरसक कर रहा हूँ।

मेरी मतिके अनुसार पवित्रताको सुरक्षित रखने के लिए यह इष्ट है कि स्त्री-पुरुष किसी भी समय कहीं भी एकान्तमें न मिलें। जहाँ सम्बन्ध पवित्र है वहाँ एकान्तमें मिलनेकी आवश्यकता नहीं है। हमें अपनी शिक्षा-दीक्षामें, अपनी बोल-चालमें, अपने खान-पानमें और अपनी आदतोंमें सुधार करनेकी आवश्यकता है। शास्त्रोंमें कितने ही निर्देश उस समयके लिए थे। इस समय उनका विचार-मात्र भयंकर मालूम होता है। स्त्रियोंकी ओर देखना पाप ठहराया गया है। इससे तो ऐसा लगने लगा है मानों हम स्त्रीको शुद्धभावसे देख ही नहीं सकते। पुत्र मांके दर्शनसे पवित्र होता है। भाई-बहनकी ओर निर्दोष भावसे देखे तो उसमें पाप हो ही नहीं सकता। पाप मनकी स्थितिपर निर्भर है। जो पुरुष विकार रहित होकर स्त्रीकी ओर नहीं देख सकता उसे तो अपनी आँखें ही फोड़ लेनी चाहिए अथवा उसे मनके विकार रहित न होने तक अवश्य ही जंगलमें वास करना चाहिए। जो पुरुष अकारण ही स्त्रीकी ओर ताकता है वह विकार रहित होनेका दावा-करे तो पाखण्डी है। इसके विपरीत प्रसंग आनेपर जो स्त्रीकी ओर देखते हुए डरता है, उसे अपनी भीरुता दूर करनी चाहिए। अपरिचित स्त्रीकी ओर देखना पाप समझा जा सकता है; परन्तु इस सम्बन्ध में कोई एक नियम नहीं हो सकता। कितने ही बन्धन क्यों न लगाये, फिर भी विकारी मनुष्यका मन तो मलिनता खोजेगा ही और अवसर हाथ आते ही अन्तमें वह मानसिक पाप भी करेगा। शुद्ध मन अपने सम्मुख आये अकल्पित प्रलोभनोंको पार कर जायेगा और सर्वथा शुद्ध बना रहेगा।

अन्तमें संयमी लोगोंको उचित है कि वे लेखकके सुझावोंको सरल भावसे अपने हृदयमें स्थान दें, सावधान रहें और अपने सेवाधर्मका पालन करें।

परन्तु पूर्वोक्त लेखके सबसे महत्त्वपूर्ण भागका सम्बन्ध तो मुझसे है। मैं समझता हूँ कि लेखककी सारी टीका सच्ची है। मेरे नामपर किये जानेवाले तमाम खर्चका जिम्मेदार मैं ही हूँ; इसमें कोई शक नहीं। मैं बहुत बार अनुभव करता हूँ कि मेरे लिए किया गया बहुत-सा खर्च नाहक होता है। मैंने इस बारेमें अनेक सज्जनोंसे मीठी तकरार की है। मैं बहुत बार तो अपनी जरूरतोंके विषयमें पहलेसे पत्र लिख देता हूँ। ऐसा होते हुए भी अतिशय प्रेम अपनी अतिशयताको नहीं छोड़ता। लोग उसके कारण कुछ-न-कुछ बहाना निकालकर खर्च करते हैं। यह सब रोकनेका प्रयत्न करनेपर भी सदा रोका नहीं जा सकता। हो सकता है कि इसमें मेरी कमजोरी भी हो। सम्भव है कि मेरे मनको ऐसे भोग दरकार हों, जिन्हें मैं पहचान न सका होऊँ। महात्मा तो मैं कहने-भरका हूँ——परन्तु वास्तवमें अल्पात्मा हूँ। ऐसा न होता तो मित्रवर्गक्रे मनको दुखाकर उनसे इस अतिशयताका सर्वथा त्याग क्यों न