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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कराऊँ? आशा है वह दिन भी आयेगा ही। मैंने अपने जीवनमें ऐसा बहुत किया है। यहाँ तो मैं अपना दोष स्वीकार करके उसे कुछ हलका कर रहा हूँ और लेखकको यकीन दिलाता हूँ कि उनके इस पत्रसे मैं अधिक सावधान हुआ हूँ और आगे भी सावधान रहूँगा।

मुझे एक बातके सम्बन्धमें अपना बचाव अवश्य करना पड़ेगा। वह है शौचादिकी सुविधा। मैंने आजसे पैतीस साल पहले यह बात सीख ली थी कि शौचका स्थान भी उतना ही साफ-सुथरा रहना चाहिए जितना सोने-बैठने का स्थान। मैने यह बात पश्चिमसे सीखी है। मैं मानता हूँ कि शौचके बहुत-से नियमोंका सूक्ष्म पालन जैसा पश्चिममें होता है, वैसा पूर्वमें नहीं। पश्चिमके शौचादिके नियमोंमें कुछ अपूर्णता है जो आसानीसे दूर की जा सकती है। हमारे अनेक रोगोंका कारण हमारे पाखानोंकी दशा और हमारी जहाँ-तहाँ मल-मूत्र डाल देने की कुटेव है। अतः मैंने शौचादिके लिए स्वच्छ स्थान और स्वच्छ बरतनोंकी आवश्यकता मानकर उन्हींका व्यवहार करनेकी आदत डाल ली है और मैं चाहता हूँ कि सब लोग ऐसा ही करें। यह आदत अब इस हदतक पुख्ता हो गई है कि मैं इसे बदलना भी चाहूँ तो भी यह बदल नहीं सकती और इसे बदलनेकी मेरी इच्छा भी नहीं होती। इसकी व्यवस्था करनेके लिए कुछ उद्योग करना होता है और उसका भार मेरे यजमानोंपर पड़ता है। परन्तु उसके लिए बम्बईसे कमोड मँगवाना तो अनर्थ ही है। एकान्तमें जमीन कच्ची हो तो वहाँ एक गड्ढा खुदवा देना और उसके पास कुछ सीढ़ियाँ बनवा देना मेरे लिए काफी होता है। यह स्थान मेरे सोनेकी जगहके नजदीक होना चाहिए। शहरोंमें तो यह सुविधा कमोडसे ही हो सकती है; इसलिए बहुत-से मित्र कमोडकी व्यवस्था कर देते हैं। परन्तु वह कमोड बम्बईका ही बना हो यह जरूरी नहीं। उसे कोई भी बढ़ई आसानीसे बना सकता है। आधा कनस्तर उसमें रखे जानेवाले बरतनका काम दे सकता है। सफाई रखनेके लिए दूसरी बहुत-सी बातें भी सुझाई जा सकती हैं।

इस व्यवस्थामें एक भी विदेशी वस्तुकी आवश्यकता नहीं है। खादीमें यह बात तो निहित है ही कि दूसरी वस्तुएँ भी जहाँतक सम्भव हो, स्वदेशी इस्तेमाल की जायें। यह न समझ लेना चाहिए कि खादी पहन ली तो हमें इससे दूसरी विदेशी चीजें इस्तेमाल करनेका परवाना मिल गया। पर खादीका यह अर्थ भी नहीं कि किसी चीजसे केवल विदेशी होने के कारण ही उससे घृणाकी जाये। खादीका अर्थ संग्राहक है, नाशक नहीं। संग्रह करते हुए जो नाश हो वह अनिवार्य है। इसलिए केवल आवश्यक वस्तुओंका संग्रह ही क्षम्य है। कपड़े के बिना काम नहीं चल सकता। हिन्दु- स्तानमें कपड़ा सहज ही तैयार किया जा सकता है। कपड़ेका धन्धा हिन्दुस्तानके करोड़ों लोगोंको रोजी देता है। सो खादी उनकी रोजीके खयालसे संग्रह-रूप अर्थात् अपनाने योग्य है। इसलिए खादी पहनना धर्म है और विदेशी वस्त्र तथा उस हद तक देशी मिलका कपड़ा पहनना भी अधर्म है। परन्तु पश्चिमसे आने वाली 'आयोडीन' नामक दवा हिन्दुस्तानमें नहीं बनती तथापि वह आवश्यक है; इसलिए वह विदेशी होते हुए भी ग्राह्य है। परन्तु जो अपनी सुख-सुविधामें वृद्धिकी ही दृष्टिसे विदेशी