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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है। मालिक अपनी मर्जीसे दुकानमें रहते हैं इसलिए उन्हें उसमें रस आता है। वे अपनी मर्जीके अनुसार दुकानसे गैरहाजिर भी रह सकते हैं। नौकर तो यह खयाल करते-करते ही अपना दिन गुजारता है कि यहाँसे कब छूटूँगा। इस हालतमें उसकी तन्दुरुस्ती अच्छी नहीं रहती तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? इसके बजाय यदि उसको सप्ताहमें रविवार या दूसरा कोई दिन अवकाशके लिए मिल जाया करे और नित्य निश्चित घंटोंतक ही काम करना पड़े तो उसको सन्तोष रहेगा और वह जल्दी ही मालिकके कामको अपना ही काम मानना सीख जायेगा।

ऐसे सुधार प्रायः इसलिए नहीं हो पाते कि लोग सोचते हैं, पहल कौन करे? धन्धे अनेक हैं; उनमें से कोई एक धन्धेवाला भी पहल करे तो दूसरे उसका अनुकरण कर सकते हैं। नौकर भी कोई तरीका सोचें और मालिकोंके सामने विनयपूर्वक सुझाव रखें तो सम्भवतः वह भी स्वीकार किया जा सकता है।

कताई-सदस्यताका मजाक

एक स्वयंसेवकने अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किये हैं :[१]

मैंने जानबूझकर गाँव या ताल्लुकेका नाम नहीं दिया है। वह है तो गुजरातका ही। मैं यह बात इसलिए स्पष्ट कर रहा हूँ कि कोई यह न सोच ले कि मैंने हिन्दी या अंग्रेजीके पत्रका अनुवाद किया है। मैं तो बाहर घूमता रहता हूँ, इसलिए दूरसे जो-कुछ उजला देखता हूँ, उसे दूध मान लेता हूँ। मैं अपने मनमें यही सोचे बैठा था कि गुजरातके २,००० मताधिकारी तो शत-प्रतिशत खरे हैं। इसी बीच मुझे यह पत्र मिला।

उक्त समाचार सच ही होगा और जैसा एक जगह वैसा ही दूसरी जगह, इस नियमके अनुसार अगर सर्वत्र यही स्थिति हुई तो क्या होगा? यदि ऐसा हो तो हमें यह बात स्पष्ट रूपसे स्वीकार कर लेनी होगी। गुजरातमें २,००० की जगह दो मताधिकारी हों तो भी अच्छा है, किन्तु २०,०००की जगह २,००,००० कागजके सिपाही काम नहीं देंगे।

यदि सुविधाएँ देनेकी जरूरत हो ही तो वे दी जानी चाहिए। किन्तु यदि सारी सुविधाएँ देनेपर भी और विनय करनेपर भी लोग सूत कातनेके लिए तैयार न हों तो हम न तो उनसे जबरदस्ती सूंत कतवा सकते हैं और न उनका नाम कांग्रेसके रजिस्टरमें ही रख सकते हैं।

तब कताई-सदस्यताका क्या हो? मैं जबतक सूत कातनेको महत्त्व देता हूँ और जबतक मुझे उसके बिना हिन्दुस्तानकी आर्थिक स्थितिमें सुधार होते नहीं दिखता, तबतक मैं कताई-सदस्यताका ही आग्रह करूँगा। मेरी स्थिति उस माँकी तरह ही सही है जो अपने बच्चेको उतना ही अधिक छातीसे लगाती है, जितना दूसरे लोग उसे दुतकारते और दुरदुराते हैं। जैसे माँके दिलमें दूसरोंकी निन्दासे अपने बालककी

  1. यह पत्र यहाँ नहीं दिया गया है। उसमें लेखकने अपने गाँवकी स्थिति बताई थी और कताई-सदस्यताके बाद कांग्रेस कार्यकर्ताओंने जो रवैया अख्तियार किया, उसका उल्लेख किया था।