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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ऐसे विचित्र कष्टोंसे पीड़ित प्रदेशकी सहायता कौन कर सकता है? किस तरह कर सकता है? गाँवोंके कष्टोंका अनुभव किये बिना उसके निवारणके उपाय किये नहीं जा सकते। आजके ग्राम्य-जीवनमें जो अज्ञान है, उसमें जब ज्ञानका प्रवेश होगा तभी हालत सुधर सकती है। लोगोंको आरोग्यके नियमोंका ज्ञान नहीं है। वे उसी तालाबमें नहाते, मैल साफ करते और बर्तन धोते हैं। मवेशी उसी तालाबमें पानी पीते हैं और मनुष्य भी उसीका पानी पीते हैं। जगह-जगह पानी भरा है उसे नालियाँ बनाकर निकालनेका उपाय किसीको नहीं सूझता और सूझता भी हो तो कोई भी उसे अपना काम नहीं मानता। तब करे कौन?

लोग इतने कंगाल हैं कि उन्हें खाने के लिए अच्छा और पौष्टिक भोजन चाहिए, सो भी नहीं मिलता, फिर दवाका खर्च कहाँसे लायें? आबहवा बदलना तो ग्रामीणोंके लिए सम्भव ही नहीं।

कुछ रीति-रिवाज तो इतने खराब हैं कि उनसे शरीर और आत्मा दोनोंका हनन होता है। बहुत छोटी आयुमें बालिकाओंका विवाह कर दिया जाता है। तेरह वर्षकी बालिका बच्चेकी माँ बन जाती है! सात वर्षकी लड़की विधवा हो जाती है! कितनी ही तो पतिको पहचानती भी नहीं हैं। पति किसे कहते हैं, इसका ज्ञान सात सालकी बालिकाको हो भी कैसे सकता है?

क्या हम इसके इलाजके लिए सरकारसे मिन्नत करें? इन कुप्रथाओंके निवारणका उपाय स्वराज्य मिलनेपर होगा या इनका उपाय किये बिना स्वराज्य ही न मिलेगा?

इसका एक ही उपाय सुगम है। शिक्षित लोगोंको सेवा-भावसे नम्रतापूर्वक देहातोंमें जाकरके लोगोंकी हालत जाननी चाहिए। इसमें बहुत-से बीमार पड़ेंगे और बहुत-से मर भी जायेंगे। हम जब यह सब सहन करना सीखेंगे, इसका उपाय हमें तभी मिलेगा। तभी लोग उस उपायको पहचानेंगे और अपनायेंगे। मैऺ यह जरूर मानता हूँ कि लोगोंकी बुद्धिमें तर्कके प्रयोगसे बात बिठा देना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। लोग तो हृदयके माध्यमसे ही समझेंगे। हृदयके माध्यमसे तो केवल वे लोग ही बोल सकेंगे जिन्होंने सेवासे, प्रेमसे, त्यागसे लोगोंका विश्वास प्राप्त कर लिया हो। सामान्यतः संसारके और विशेषतः भारतके इतिहासके पन्ने-पनेमें लिखा है कि जो लोग भावना-प्रधान होते हैं उन्हें कोई बात बुद्धिसे नहीं समझाई जा सकती। क्या यह सच नहीं है कि हृदय प्रधान है और बुद्धि गौण? और हृदय रूपी गंगासे अछूती बुद्धि व्यर्थ है? हृदय शुद्ध न होनेके कारण और बहुत मायावी होनेपर भी रावणकी बुद्धि व्यर्थ रही और रामकी बुद्धि, हृदय शुद्ध होनेके कारण सहज ही अजेय रही।

देशबन्धु कहते हैं कि देहातको सुगठित किये बिना स्वराज्य मिलना सम्भव नहीं है। अन्य लोग भी यही कहते हैं। बंगालके अनुभवसे मैंने तो यही सीखा है कि हम जबतक देहातमें प्रवेश न करेंगे, तबतक हिन्दुस्तानको नहीं पहचान सकेंगे।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ३१-५-१९२५