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९९. बंगालमें कताई

बंगालकी यात्राका पहला भाग निर्विघ्न पूरा हो गया। निर्विघ्न इसलिए लिखना पड़ता है कि कितने ही मित्रोंको इसमें शक था कि मेरा स्वास्थ्य इस परिश्रमको सहन कर सकेगा या नहीं। मैने बंगालमें जो हालत देखी है वह तो मेरी आशासे अधिक अच्छी प्रतीत हुई है। यहाँ बड़े-बड़े जमींदार सकुटुम्ब कातते हैं। यहाँ दीनाज-पुरमें तथा अन्यत्र मैंने जमींदारों, वकीलों, बैरिस्टरों, अस्पृश्यों और हिन्दु-मुसलमानोंको बड़ी-बड़ी सभाओंमें एक साथ बैठकर कातते हुए देखा। यहाँ मैंने ऐसे सैकड़ों स्त्री-पुरुषोंको, जो अच्छे खाते-पीते हैं, बढ़िया सूत कातते हुए देखा। ये सब लोग हमेशा नहीं कातते। मुझे तो इतनी ही बात सन्तोष दे रही है कि इतने स्त्री-पुरुष अच्छी तरहसे कातना जानते हैं और प्रसंग आनेपर कातनेके लिए बैठते हैं। मैंने कताईका इतना अभ्यास भारतमें और कहीं नहीं देखा। दूसरी जगह जिस बातको स्त्री-पुरुष प्रयास करके पाते हैं, मैंने यहाँ यह बात स्वाभाविक पाई। जिस तरह विवाह इत्यादिके लिए अलहदा पोशाकें होती हैं। जिस तरह घरकी पोशाक और दफ्तरकी पोशाक जुदी-जुदी होती हैं, उसी तरह बहुतोंने खादीको भी अपनी पोशाकमें जगह दी है। यह बात ज्यादातर हिन्दुस्तानमें दूसरी जगह नहीं देखी जाती।

यहाँ मैंने खादी-विरोधी वातावरण देखा ही नहीं। अपरिवर्तनवादी और स्वराज्यवादी दोनों खादीका कम-ज्यादा उपयोग तो करते ही हैं। मैंने यहाँ चरखेकी निरुपयोगिता बतानेवाले सिर्फ तीन ही आदमी देखे; किन्तु वे भी प्रथम पंक्तिके न थे। यहाँ नरम और गरम सभी दलोंके लोग खादीका थोड़ा-बहुत उपयोग करते हैं।

यहाँकी पूनियोंका मुकाबला कोई प्रान्त नहीं कर सकता। उनमें किरी बिलकुल नहीं होती। बहुत-सी जगह तो देव कपास जातिकी रुईका सूत काता जाता है। उसे न ओटनेकी जरूरत होती है और न धुननेकी। इस कपासकी रुई अँगुलियोंसे निकाल ली जाती है, उसके रेशोंको जमाकर उनकी पूनियाँ बना ली जाती है और इन पूनियोंसे महीनसे-महीन सूत कात लिया जाता है। दूसरी कपास जो पहाड़ोंमें होती है, बहुत घटिया किस्मकी है। उसका रेशा बहुत ही छोटा होता है। वह चिकनी भी नहीं होती। उसे धुनना पड़ता है; परन्तु उसमें भी किरी तो नहीं होती। उसकी पिंजाई अच्छी नहीं होती; परन्तु चूँकि सभीको रुई साफ धुननेकी आदत है, इसलिए कोई भी खराब नहीं धुनता। बाजारमें जो सूत दिखाई देता है उसमें भी किरी नहीं होती। दससे कम अंकका सूत शायद ही कहीं दिखाई देता है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ३१-५-१९२५