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१०३. भेंट : डॉ॰ एच॰ डब्ल्यू॰ बी॰ मोरेनोसे

शान्तिनिकेतन
३१ मई, १९२५

डॉ॰ एच॰ डब्ल्यू॰ बी॰ मोरेनोने जब दुबारा महात्मा गांधीसे भेंट की तो आंग्ल-भारतीय प्रश्नपर सविस्तार बात हुई। प्रारम्भमें ही डॉ॰ मोरेनोने उन कठिनाइयोंकी ओर इशारा किया जो सूत कातने और खद्दर पहननेको श्री गांधोको सलाहपर अमल करनेमें आती थीं; यदि यह मान भी लें कि खद्दरके पक्षमें दिये गये गांधीजीके तर्क सही हैं, तो भी आंग्ल-भारतीयोंको कामको वह पद्धति-विशेष अपनानेमें ऐसी कठिनाइयोंका सामना करना पड़ेगा जिनपर वे पार नहीं पा सकते।

श्री गांधीने स्वीकार किया कि आंग्ल-भारतीयों-जैसे एक समूचे समुदायको कामके ऐसे तरीके अपनानेके लिए तैयार करना आसान नहीं है, लेकिन उन्होंने कहा कि मैं उनके मामलेमें धीरजसे काम लेने को तैयार हूँ। फिलहाल मुझे इसी बातसे संतोष हो जायेगा कि आंग्ल-भारतीय लोग मेरे कताई-कार्यक्रमके प्रति अनुकूल मानसिक दृष्टिकोण अपना लें। कताईका मुख्य प्रयोजन पीड़ित जनताको निर्धनताको कम करना ही है। कताई अमीरों और गरीबोंके बीच एकताका सूत्र है; और मैं तो भारतमें बसे, भारतका नमक खानेवाले अंग्रेजों को भी यही सलाह दूँगा कि उन्होंने जिसे अपना देश बना लिया है, उसके प्रति वे सच्चे रहें और कताईको अपनायें।

डॉ॰ मोरेनोने गांधीजीका ध्यान इस बातकी ओर आकर्षित किया कि फिलहाल कौंसिलोंमें, विधान-सभाओं और अन्य सार्वजनिक संस्थाओंमें आंग्ल-भारतीयोंको एक निश्चित अनुपातमें प्रतिनिधित्व मिला हुआ है। स्वराज्य हो जानेपर इस अल्पसंख्यक समुदायके साथ क्या व्यवहार किया जायेगा? भारतके अन्य बड़े-बड़े समुदायोंके बीच उसकी स्थिति क्या होगी?

श्री गांधीने जवाब दिया कि यदि आंग्ल-भारतीय अन्य जातियोंके साथ कदम मिलाकर चलें तो मैं नहीं समझता कि उनको कोई बड़ा नुकसान उठाना पड़ेगा। मेरा मत है कि हिन्दुओं और मुसलमानोंको अपनी तरफसे कुछ रियायत करके भी आंग्ल-भारतीयोंको भारतको प्रातिनिधिक संस्थाओंमें कुछ अधिक प्रतिनिधित्व सिर्फ इसलिए देना चाहिए कि वे अल्पसंख्यक है और उन्हें अधिक संरक्षणकी जरूरत है।

'खुद मुझे लग सकता है कि मैं इसे ज़रूरतसे ज्यादा अहमियत दे रहा हूँ लेकिन मैं अपने मनमें इतना जानता हूँ कि मैं बच्चेकी तरह इस छोटे समाजके प्रति इस कर्त्तव्यको पिताका कर्त्तव्य निभानेकी तरह मानता हूँ; फिर अन्य लोग चाहे जो भी कहें।'