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भेंट : डॉ॰ एच॰ डब्ल्यू॰ बी॰ मोरेनोसे

डॉ॰ मोरेनोने कहा कि अभी आंग्ल-भारतीय लम्बे अर्सेके सम्पर्क और अपने रहन-सहनके एक खास तौर-तरीकेके कारण उन पदोंके लिए विशेष उपयुक्त हैं जिनपर वे अभी भारतमें रेल-विभाग, चुंगी-विभाग और अन्य विभागोंमें काम कर रहे हैं, क्या 'भारतीयकरण' का अर्थ इन पदोंको आंग्ल-भारतीयोंसे छीनकर भारतीयोंको दे देता है ? इधर कुछ समयसे ऐसी आशंका आंग्ल-भारतीयोंके मनको बुरी तरह कुरेदती रहती है।

श्री गांधीने जवाब दिया कि सभी सेवाओंके लिए सबसे बड़ी कसौटी कार्यक्षमता होनी चाहिए। यदि आंग्ल-भारतीय उन पदोंके लिए उपयुक्त हैं तो उन्हें कुछ समयतक अवश्य ही उनपर बने रहना चाहिए। कुछ समय बाद जब भारतीय भी कार्यक्षमताके आधारपर इन पदोंके योग्य हो जायेंगे तो उन्हें इन पदोंको प्राप्त करनेसे रोका नहीं जा सकता, लेकिन उस वक्ततक आंग्ल-भारतीयोंके लिए जीविकाके अन्य क्षेत्र भी खुल जायेंगे। भारतमें जो जातियाँ और समुदाय अभी ऊपर हैं, मैं यह नहीं चाहता कि उनको नीचे लाया जाये, बल्कि मैं तो यह चाहता हूँ कि स्वराज्य आनेपर जो नीचे हैं उनको भी ऊँचे स्तरपर ले जाया जाये। मैं एक उदासीन भारतीय ड्राइवर द्वारा चलाये जानेवाले इंजनकी अपेक्षा उस इंजनवाली रेलगाड़ीमें बैठना ज्यादा पसन्द करूँगा जिसे एक योग्य प्रशिक्षित यूरोपीय या आंग्ल-भारतीय ड्राइवर द्वारा चलाया जा रहा हो।

डॉ॰ मोरेनोन आंग्ल-भारतीयोंकी शिक्षाकी दयनीय दशाका उल्लेख करते हुए कहा कि धारा-सभाओंमें कभी-कभी यूरोपीयोंकी शिक्षाके लिए अनुदानोंमें कटौती करानेके प्रयत्न किये जाते हैं, और इसका आधार यह होता है कि अन्य शैक्षणिक अनुदानोंकी तुलनामें, उन्हें बहुत ही खुले हाथ राशियाँ दी जाती हैं। डॉ॰ मोरेनोने कहा कि उन अनुदानोंको बन्द करनेका अर्थ यही होगा कि निकट भविष्यमें यह समुदाय सामाजिक रूपसे बर्बाद हो जायेगा। इसपर श्री गांधीने कहा :

गलती यही है। मुझे कुछ रियायतें देकर भी आंग्ल-भारतीयोंको इसीलिए सन्तुष्ट रखना चाहिए कि वे अल्पसंख्यक हैं और उन्हें विशेष संरक्षणकी जरूरत है। जब बम्बईमें दंगे हुए थे और आंग्ल-भारतीयों और पारसियों दोनोंपर नृशंसतापूर्ण हमले किये गये थे, तब मैंने अपने भारतीय भाइयोंको बुरी तरह डाँटा-फटकारा था। भारतके सभी दलोंकी एकताकी बात कहते समय मैं उसमें आंग्ल-भारतीयों, पारसियों, यहूदियों, आदिका उल्लेख करता आया हूँ। इन सबको अलग रखकर एकता हो ही नहीं सकती। तब तो दुर्बलोंपर शक्तिशाली लोगोंकी निरंकुशता ही चलेगी। भारतके बड़े समुदायों, जैसे कि हिन्दुओं और मुसलमानोंका छोटे समुदायोंके प्रति यह एक पवित्र कर्त्तव्य है कि वे उन्हें संरक्षण दें।

आंग्ल-भारतीयोंकी शिक्षाके सम्बन्धमें मैं कहूँगा कि वह शिक्षा उनकी नैतिकताको ऊँचा नहीं उठाती, क्योंकि अक्सर यात्रा करते समय मैंने देखा है कि आंग्ल-भारतीयोंमें यूरोपीयों और भारतीयोंके गुण होनेके बजाय दोनोंकी बुराइयाँ ही