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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हैं। भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी भाषाकी गन्दीसे-गन्दी गालियाँ रोज ही उनकी बोलचालमें शामिल होती रहती हैं। ऐसी दूषित रुचि तो आंग्ल-भारतीयोंको स्वयं ही सुधारनी है। आंग्ल-भारतीयोंमें ऐसा हो क्यों रहा है; इसका कारण यही है कि वे अपने-आपको सामाजिक रूपसे अलग-थलग रखते हैं और अपने पड़ोसियोंके उत्तम गुणोंको ग्रहण करनेकी कोशिश नहीं करते। रेलवे प्लेटफॉर्मपर मैंने यह भी देखा है कि वे चटोरे भी होते जा रहे हैं। खाने-पीनेकी जो भी गन्दी और बीमारी पैदा करनेवाली चीजें उनको बिकती दिखाई पड़ती हैं, उनको वे चुपकेसे खरीद कर लोगोंकी आँखें बचाकर खा लेते हैं। जिह्वाका स्वाद मनकी रुचि बताता है।

डॉ॰ मोरेनोने इस बातकी ओर ध्यान दिलाया कि यह बिलकुल पक्की बात है कि अभीतक आंग्ल-भारतीयोंने कांग्रेसकी कार्रवाइयोंमें नहींके बराबर या बिलकुल दिलचस्पी नहीं दिखाई है। सर सुरेन्द्रनाथ बनर्जीके बंगालमें नेतृत्वके दौरान इस समुदायके तत्कालीन नेता डॉ॰ जे॰ आर॰ हेलैसको कांग्रेसमें शरीक होनेके लिए आमन्त्रित किया गया था। लेकिन जब यह बात समुदायके लोगोंमें फैली तो कुछ समयके लिए डॉ॰ हेलैसको समाजसे बहिष्कृत कर दिया गया था।

हम कांग्रेस में आपका स्वागत करेंगे। आप क्यों नहीं आते? यदि आप बाहर बने रहें तो दोष किसका है? कमसे-कम मैं तो उसी तरह बाहें फैला कर आपका स्वागत करूँगा, जैसे कि मैं यहूदियों या पारसियोंका करूँगा। यदि कांग्रेस सभीको अपने अन्दर शामिल नहीं करती, तो वह सच्ची राष्ट्रीय संस्था नहीं है।

सूतकी शर्तवाले मताधिकारके बारेमें महसूस होनेवाली कठिनाईको भी आप उसी तरह हल कर सकते हैं, जैसे कि अन्य लोगोंने फिलहाल किया है। वे अपने ही स्थानसे सुत खरीदकर उसे भेज सकते हैं।

डॉ॰ मोरेनोने कहा कि इस समुदायमें दो तरहके लोग हैं, एक वे जिनका रुझान यूरोपकी तरफ है, दूसरे वे जिनका रुझान भारतकी तरफ है; लेकिन अब विचारोंमें शीघ्रतासे परिवर्तन हो रहा है।

श्री गांधीने कहा कि मैंने खुद गौर किया है कि आंग्ल-भारतीयोंके मतमें परिवर्तन हो रहा है। अब वे अपने-आपको भारतीय माननेकी तरफ झुक रहे हैं। यह मने अपने कई आंग्ल-भारतीय मित्रोंकी बातचीतसे समझा है। कुछ आंग्ल-भारतीय चमड़ीके रंगको लेकर ही सिद्धान्त बघारने लगते हैं। थोथे बड़प्पनकी यह भावना बेकारकी चीज है।

असल कठिनाई तो तब आती है जब आप अपने समुदायके गरीब लोगोंकी स्थितिपर विचार करते हैं। वे पतनकी ओर जा रहे हैं और भारतीयोंकी निम्नतम बुराइयोंको अपनाते जा रहे हैं, क्योंकि उनके और समुदायके समृद्धिशील भाइयोंके बीचकी खाई चौड़ी होती जा रही है। समृद्ध आंग्ल-भारतीयोंके लिए कोई साम्प्रदायिक समस्या नहीं है और वे अपनी योग्यतासे कहीं अधिक पा रहे हैं। आंग्ल-भारतीय विचारकोंको अपने गरीब वर्गोंकी समस्या हल करनेके बारेमें अधिक सोचना है। हमारे यहाँ अस्पृश्योंकी समस्या है। आपके सामने यही समस्या एक दूसरे रूपमें है।